मंगलवार, 12 नवंबर 2013

ख्वाब

ख्वाब
 
झलती रही पंखा साँझ सारी शाम,
रात बोझिल हुई चुप चाप सो गई.

मुंह ढांप के कुहासे की चादर से,
हवा गुमनाम जाने किसकी हो गई.
 
चाँद ने ली करवट बांहों में थी चांदनी,

रूठी छूटी छिटकी ठिठकी वो गई.
 
बदली के आंचल की उलझने की हठ,

आकाश की कलँगी भिगो गई.

बादल के बाहुपाश में आ कर दामिनी,
मन के सारे गिले शिकवे भी धो गई.
 
राग ने रागिनी को धीमे से जो छुआ,
वो बही बह के कानों में खो गई.

आँखों में ख्वाब के अंकुर ही थे फूटे,
सुबह नमक की खेती के बीज बो गई.
 
  सज संवर के पंखुरियों पे बैठी थीं जो,
आज वो ओस की बूंदें भी रो गईं.

मन की गठरी है आज भी बहुत भारी,
पर हाय मेरी किस्मत उसको भी ढो गई.

रविवार, 25 अगस्त 2013

राजनीति इधर भी

राजनीति इधर भी

कभी अकड़ती इतराती
भाव खाती कोई सब्जी
अचानक बेचारी हो जाती
जब दूसरी दो चार सब्जियाँ
लजाती लड़खड़ाती गिर पड़ती,
हम उसे थाम लेते 
बस जाती वो
हमारी आँखों में
संकटमोचन बन,
पर अब वो बात नहीं
इसके पहले कि 
उपयुक्त समय जान
कोई लजाये, लड़खड़ाये, गिर पड़े.
भाव खाती सब्जी
सबको सहारा दे 
उठाती है अपने साथ.
ऊपर से देखने में
अलग अलग दल
श्रेणियाँ हैं इनकी
अब अंदर सब एक हैं
सब्जी का राजा आलू
गृह मंत्री टमाटर
वित्त मंत्री प्याज
फलों के शहंशाह आम
करते हैं मंत्रणा
एक वातानुकूलित कक्ष में
और पल भर में ही
गरीबी रेखा पर 
झूलता मेरा संसार
मेरा चूल्हा, चौका
कुपोषण के शिकार
साग भाजी को 
तकते मेरे बर्तन    
आ जाते हैं 
गरीबी रेखा के ऊपर
जानना चाहती हूँ
साग भाजी में राजनीति है
या राजनीति में साग भाजी
या हर साँस हर आस में राजनीति. 

रविवार, 11 अगस्त 2013

दस्तक

दस्तक 

 रोती बिलखती हर गली मोहल्ले में,
सांकल अपना पुराना घर ढूंढती है.

सजी थी कभी मांग में जिसकी,
वो चौखट वो दीवार ओ दर ढूंढती है.

डाले बांहों में बांहे, किवाड़े किवडियाँ,
आज भी अपना वो घर ढूंढती हैं.

जहाँ छत ओ मुंडेरें थी सखी सहेली, 
आंगन पनाले वाला घर ढूंढती हैं.

छोटे ओ गहरे घरों की लंबी कतारे,
अपना पुराना शहर ढूंढती हैं.

थकी हारी टूटी हुई दस्तक, 
खुले दरों वाला घर, शहर ढूंढती है.

रविवार, 7 जुलाई 2013

कभी यूँ भी ..

कभी यूँ भी ..

मेरे शहर का एक 
पांच सितारा होटल 
कागज का टपकता 
चाय का कप 
उसे सहारा देने को 
लगाया गया एक और कप 
दुबली पतली काली निरीह 
जाने कैसी चा..य ..
यूँ लगा उसे पानी कह कर पुकारूँ 
अगले ही पल सोचा 
पानी की इस तंगी में 
कल के अखबार की 
सुर्खियाँ ना बन जाए  
"पानी की आत्महत्या"
ढूंढती हूँ कप में चाय 
समझने लगती हूँ 
उसका दर्द  
कभी सजी संवरी सी रहने वाली वो 
दूध के दो छींटों बाद भी 
रोती बिलखती वो विधवा 
चाय और कॉफी
झांकती हूँ उसके कप में
उसे विधवा कहूँ, विधुर कहूँ 
क्या कहूँ, कुछ न कहूँ  
मेरे शहर का एक 
पांच सितारा होटल 
 
 
[५ जुलाई २०१३पुरानी दिल्ली का ओबेरॉय मैडेन  पांच सितारा होटल एक आयोजन जिसमे भाग लेने के लिए भरे थे मैंने ४६०००रूपये ]

रविवार, 30 जून 2013

विरक्ति

विरक्ति 


सब कहते हैं
मेरी माँ ने
मेरे शरीर में रोपी थीं
कुछ नन्हीं कोपलें
गन्ने की
तब जब थी मैं
उनके गर्भ में
समय के साथ बढती रही
मैं और वो फसल
हंसना, खिलखिलाना,
हँसाना, मिठास बिखेरना
मेरा पर्याय हो गया
अचानक उम्र के
किसी मोड पर.
छूट गया सब कुछ.
सूखने लगी मैं
और वो फसल
जमने लगा शरीर के भीतर
गुड, गाढ़ी चिपचिपी
चाशनी और शर्करा.
अचानक किसी
चिरपरिचित आवाज का
ये पूछना
तुम वही हो ना
जो अपनी बातों से
हवाओं में मिश्री
घोला करती थीं कभी !
खोजने लगी अपने आपको
झाँका अपने भीतर
ये मैं हूँ ?
पाया उपेक्षित पड़ा
मिठास का भंडार.
अब हँसने मुस्कुराने 
चहकने महकने लगी हूँ
बिखेरना चाहती हूँ 
मिठास एक बार फिर 
उम्मीद है 
जल्दी ही लहलहाएगी
गन्ने की कोपलें 
जो माँ ने रोपीं थीं 
जब मैं थी उनके गर्भ में.

रविवार, 23 जून 2013

विकास की इबारत

विकास की इबारत 


आज कल देखती हूँ हर शाम
लोगों को बतियाते, फुसफुसाते
जाती हूँ करीब
करती हूँ कोशिश
सुनने की समझने की
कि पास के बाग में
पेड़ों पर रहते हैं भूत
नहीं करती विश्वास उन पर
पहुँचती हूँ बाग में
देखती हूँ हरी भरी घास
छोटे नन्हें पौधों को अपनी छत्रछाया में
बढ़ने और पनपने का अवसर देते
चारों तरफ फैले बड़े ऊँचे दरख़्त
कुछ भी असहज नहीं लगता
बढती हूँ दरख्तों की ओर
अचानक कुछ आहट, सरसराहट
पत्तों में कंपकंपाहट
अचानक सांसों को रोकने से
उठती अकुलाहट
बडबडाती हूँ मैं
मैं अदना सा इंसान
न बाउंसर, ना बौडी बिल्डर
भला मुझसे क्या और कैसा डरना
मेरी बात से हिम्मत पा
एक नन्हा पौधा बोल ही पड़ा
हम तो डरते हैं
आप जैसे हर किसी से
क्योंकि हम नहीं जानते
कब किस वेश में आ जाय
यमराज रूपी कोई बिल्डर.

रविवार, 16 जून 2013

जेठ की दुपहरी में

जेठ की दुपहरी में


जेठ की दुपहरी में
आम और अम्बौरी में
कोयल और गिलहरी में
मन के आंगन और देहरी में
छाया उस छरहरी में

खुशबू तुम फुरहरी मैं.

दग्ध प्रज्वलित बयारी में
तन की क्यारी क्यारी में
फल सब्जी तरकारी में
हल्की झीनी सी सारी में
राधा और बनवारी में

गन्ना तुम खांडसारी मैं.

इतने बरसों की दूरी में
उस शाम एक सिंदूरी में
उन आँखों भूरी भूरी में
तेरी खुशबू कस्तूरी में
मेरी इक मंजूरी में

आए पास तुम पूरी मैं.

प्यार की खुमारी में
मेरी अलकों कजरारी में
अपनी उस लाचारी में
सांसों भारी भारी में
हम दोनों की शुमारी में

जीत गए तुम हारी मैं.

रविवार, 9 जून 2013

आग

आग

सुलग रही हूँ जाने कब से
समझने लगी थी
नाते रिश्ते दुनिया जबसे
कभी महकती
सबको महकाती
खुशबू बिखेरती
कभी धुआं धुआं
भीतर बाहर सब तरफ
कालिख ही कालिख
जलना जलना सुलगना
मेरी आदत हो गई
उम्र के इस पड़ाव पर सुलग.
नहीं जल रही हूँ आज भी
पर एक लौ की तरह
नहीं छोड़ती अब धुआं
सुगंध या दुर्गंध
धुन आज भी वही
जलना जलाना
अपने भीतर बाहर
और आसपास
फैलाना तो सिर्फ प्रकाश
राह दिखाना अँधेरा दूर करना
कभी मैं अगरबत्ती सी
जला करती थी
आज दिए सी जल रही हूँ.

रविवार, 2 जून 2013

दायरे

दायरे

देखती हूँ थोड़ी थोड़ी दूर पर खड़े
बांस के झुरमुटों को
कैसे खड़े हैं सीधे सतर
अपने और सिर्फ अपनों को
अपनी बाँहों के दायरे में समेटे
कभी कोई नन्हीं बांस की कोपल
बढती है बढ़ना चाहती है
पास के बांस समूह की तरफ
एक वयोवृद्ध बांस
झुकता नहीं
टूटता है टूट कर गिरता है
उस नन्हीं कोपल पर
कभी अपने आप से अलग करने
कभी उस समूह से अलग करने को
बनी हैं ये दूरियां आज भी
कोई सुखी है या नहीं
पर सभी अपने अपने दायरों में सीमित
क्या अपनी प्रकृति से हमें सीखने को
यही मिला था.......

रविवार, 26 मई 2013

दिल्ली का दिल

दिल्ली का दिल 

हमारे शहर में
कोई व्याकुल है
ब्याह रचाने को
तैयार हैं बाराती
बैंड बाजा घोड़ी गाड़ी.

पंडित करता है हर बार
एक तिथि की घोषणा
दुल्हन की तरफ से हर बार
आता है एक जवाब डाक्टर का
दुलहन को समय चाहिए.

दुलहन बीमार है
हर बार एक नई बीमारी
मलेरिया, डेंगू, अपच, लकवा, पीलिया
मुहसे और अब चेचक
पूरी देह पर बड़े बड़े गड्ढे धब्बे.

गर्द माटी से सनी देह
हाँ मेरे शहर का दिल
कनाट प्लेस बेताब है
पिछले चार सालों से
दुलहन बनने को.

हम सब उसे देखने को
इस बार फिर एक नई तिथि
मिली है उसको
तीस जून.

रविवार, 19 मई 2013

संकेत

संकेत


फूलों का खिलना एक
एक सकारात्मकता,
एक उत्सव, एक उल्लास, एक उत्पत्ति.

पास के एक गांव में
एक विशेष प्रजाति के बांस का झुरमुट
अचानक पट गया फूलों से

और पट गए
गावं के बुजुर्गों के माथे
चिंता की लकीरों से.

इन फूलों का खिलना.
एक नकारात्मकता, एक विपत्ति.
धरती माँ की छाती फटने का संदेश.

हाँ
कुछ गांवों में फल फूलों के साथ
अकाल के आने की ये दस्तक है.

रविवार, 12 मई 2013

पहेली

पहेली 

आजकल मेरे शहर में
जब तब होता है
बादलों का जमावड़ा
बादल की बाँहों में होती है
लुका छिपी वर्षा की
खुश होती हूँ
जानती हूँ दोनों के संगम से
जल्दी ही पनपेंगी
कुछ नन्हीं बूंदें
वर्षा की कोख में
होगी कुछ हलचल
फिर कौंध उठेगी बिजली
उठते ही प्रसव पीड़ा के
जन्म लेंगी नन्ही नन्ही बूंदे
बज उठेंगी थालियाँ
उतरेंगी नन्ही परियां धरती पर
पर कुछ भी नहीं हुआ ऐसा वहां
उठीं अनगिनत उंगलियां
सबने एक ही स्वर में कहा
बाँझ हो गई वर्षा
सोच नहीं पाती हूँ मैं
नहीं है कोई जवाब मेरे पास
वर्षा बाँझ हो गई
या बादल नपुंसक.

रविवार, 5 मई 2013

शमा

शमा


कहते हैं उसे
दर्द नहीं होता
वो किसी के प्यार में
पागल नहीं होता
पलक पांवड़े नहीं बिछाता
गिरता नहीं बिखरता नहीं
बूंद बूंद रिसता नहीं
बहता नहीं टूटता नहीं
कल एक मोमबत्ती को
दिए के प्यार में
जलते सुलगते
बिखरते टूटते
सीमाओं को तोड़ते देखा
और दिया
एक जलन तपिश
आग रौशनी थी उधर
फिर भी
अपनी ही सीमाओं में
बंधा शांत
एक ठहराव
एक अकेलापन
अचानक देखती हूँ
लौ के एक भाग का
टूटना गिरना स्याह होना
अँधेरे में खो जाना
क्या इसी को कहते
दीप तले अँधेरा.

रविवार, 28 अप्रैल 2013

महाभारत

महाभारत 
 

आज के इस युग में
जब देखो जहाँ देखो
दिखाई सुनाई पड़ती
महाभारत
पिता-पुत्र द्वन्द
मेरा घर भी
नहीं है अछूता
न चाहते हुए भी
सारा दिन हर पल
होता है यहाँ भी
पिता पुत्र द्वन्द
और कोई नहीं...
ये हैं अर्जुन अभिमन्यु
अर्जुन सदैव तत्पर
त्वरित धीर गंभीर
ऑंखें स्थिर
अपने लक्ष्य पर
माँ की कोख से
सीख कर आया
अभिमन्यु
कभी शांत
कभी सौम्य
कभी उत्पाती
चक्रव्यूह में
फंसता, निकलता
हारता, बैठता
पर हार कर भी जीतता.
अर्जुन मस्तिष्क है मेरा
जो जीत कर भी हारा.
अभिमन्यु दिल है मेरा
जो हार कर भी जीता.
जब भी मरा है कोई
अश्वत्थामा की मौत
तो बस मेरा मन.

रविवार, 21 अप्रैल 2013

बसंत विभावरी

बसंत विभावरी 
 


बांधी है गठरी वसंत ने जब से,
तपने लगी देह हवा की तबसे.

मिलन की खुमारी उतरी नहीं थी,
जुदाई के आँसू हैं राह में कब से.

मायूस फूलों की धड़कन अधूरी,
पराग औ भंवरें भी रूठे हैं रब से.

पत्तों का पेड़ों से लिखा है बिछुड़ना,
धरा पर विचरते ये फिर क्यूँ अजब से.

न धानी चुनरिया न पीला वो आंचल,
उड़ती है माटी जाने किसके सबब से.

ये ऋतुएं ये ऋतुओं की रानी महरानी,
बदलती हैं ये करवट कैसे गज़ब से.

बांधी है गठरी वसंत ने जब से,
तपने लगी देह हवा की तबसे.

रविवार, 14 अप्रैल 2013

अनबुझे प्रश्न


अनबुझे प्रश्न


तुम मुझे बहुत याद आते हो,
मेरी तनहाइओं में,
सुनसान वीरानों में,
मेरे अनबुझे से प्रश्न।
क्यों होते हैं कुछ रिश्ते,
कांच से नाज़ुक,
कुछ ढाल से मजबूत,
कुछ रौशनी में परछाई, 
कुछ कागज़ पर रोशनाई।
तुम मुझे बहुत याद आते हो,
मेरे अनबुझे से प्रश्न।
क्यों नाज़ुक रिश्ता दरज़ता है।
क्यों मजबूत रिश्ता खड़ा रहता है।
क्यों परछाई रोशनी का
नहीं छोडती साथ।
क्यों कागज़ पर लिखा 
रिश्ता नहीं होता आबाद।
तुम मुझे बहुत याद आते हो,
मेरे अनबुझे से प्रश्न।

रविवार, 7 अप्रैल 2013

माँ

माँ
(एक बाल कविता)

मेरी माँ जैसी कोई माँ हो,
ऐसा कभी हुआ न होगा

स्नो व्हाइट सिन्ड्रेला सी, 
शांत सौम्य और सुन्दरता में,
उसका जैसा हुआ न होगा

रात अँधेरी सुबह सवेरे,
जब भी देखो जब भी मांगो
उसका प्यार बरसता होगा

मेरी माँ जैसी कोई माँ हो,
ऐसा कभी हुआ न होगा

दुर्गा काली सी गरिमा और,
सरस्वती सा ज्ञान लिये,
कहीं कोई भी हुआ न होगा।

सोते -जगते आते -जाते ,
अपनी बिटिया से मिलने को,
सपना एक तरसता होगा

मेरी माँ जैसी कोई माँ हो,
ऐसा कभी हुआ न होगा।

रविवार, 31 मार्च 2013

पासवर्ड


पासवर्ड 

मैं पासवर्ड हूँ
अजब अनोखा
मैं हैक होना चाहता हूँ
हैंग होना चाहता हू
खो जाना चाहता हूँ
भुला देना चाहता हूँ अपने आपको
एक बार आजमा कर तो देखो
हां मैं तुम्हारा और केवल तुम्हारा
पासवर्ड हूँ.

और फिर

पिछले कुछ दिनों से
बस एक ही मैसेज
बार बार देखती हूँ
आपका अकाउंट किसी ने खोला था
क्या वो आप थीं ?
जोर डालती हूँ 
दिमाग पर.
याद आने लगता है 
सब कुछ.
स्पैम में चले जाते हैं
मुझे उलझन में
डालने वाले सपने
चुपचाप बिना कुछ कहे.
डिलीट होने लगे हैं.
बुरे सपने 
अपने आप ही.
मैमोरी फुल सी होने लगी है
अच्छे और सुखदाई सपनों की
पर बिना कुछ भी किये
ये सब कैसे...
साफ़ समझ आने लगा है...
हैक हो गया है 
"मेरे सपनों का पासवर्ड"
कहीं वो हैकर 
"तुम" तो नहीं .....

रविवार, 24 मार्च 2013

फागुन में

फागुन में



तन मेरा महुआ हुआ जाता है फागुन में,
हर घाव मरहम हुआ जाता है फागुन में.

ये खुमारी ये सिहरन अजब सी हवा में,
नशा भांग को हुआ जाता है फागुन में.

अंबर की सियाही से खत चाँद ने लिखा,
आंचल बदली का ढला जाता है फागुन में.

बालों की लटों से ढांप रखा है चेहरा उसने,
मुख  गुलाल हुआ जाता है फागुन में.

जाऊं न जाऊं कहाँ जाऊं ठहर जाऊं,
मन उसका बयार हुआ जाता है फागुन में.

भीगा सा तन मन है भीगा सा आंचल,
बिन उनके अंगार हुआ जाता है फागुन में.

मिलने की आस हो और मिल न पाए,
आँखों में रंग उतर आता है फागुन में.

तन मेरा महुआ हुआ जाता है फागुन में,
हर घाव मरहम हुआ जाता है फागुन में.

रविवार, 17 मार्च 2013

तुम्हारे लिये

तुम्हारे लिये

एक बार फिर
कल तुमने इतनी दूर से ही
मेरे मन मेरी आत्मा को
मेरे भीतर कहीं दूर तक छुआ.
तुम्हारे शब्द कानों के रास्ते
मेरे शरीर में अब तक 
घुल रहे हैं धीमे धीमे. 
और मैं भी
जानती हूँ ये सब
केवल मेरा मन रखने को
नहीं कहा था तुमने.
इतने इतने इतने सालों बाद भी
तुम्हारी आवाज़ में
वही नयापन वही सच्चाई वही खनक.
वही वही वही सब कुछ था.
तुमने जब कहा
दोपहर सोते हुए सपने में
तुमने मुझे देखा
मैं बोल रही थी उठ जाओ
नहीं तो रात को
नींद नहीं आएगी.
और तुम झपट कर उठ बैठे
फोन पर बताया
आज भी सपने में
मैं सिर्फ तुम्हें ही देखता हूँ.
मैं ... निःशब्द ...
मेरी आँखों की कोरों पे
चमक उठे थे
कुछ बेशकीमती मोती.
चुचाप समेट उन्हें
एक बार फिर
साँस की डोर में
पिरो लिया है
बस तुम्हारे लिए.
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