रविवार, 23 जून 2013

विकास की इबारत

विकास की इबारत 


आज कल देखती हूँ हर शाम
लोगों को बतियाते, फुसफुसाते
जाती हूँ करीब
करती हूँ कोशिश
सुनने की समझने की
कि पास के बाग में
पेड़ों पर रहते हैं भूत
नहीं करती विश्वास उन पर
पहुँचती हूँ बाग में
देखती हूँ हरी भरी घास
छोटे नन्हें पौधों को अपनी छत्रछाया में
बढ़ने और पनपने का अवसर देते
चारों तरफ फैले बड़े ऊँचे दरख़्त
कुछ भी असहज नहीं लगता
बढती हूँ दरख्तों की ओर
अचानक कुछ आहट, सरसराहट
पत्तों में कंपकंपाहट
अचानक सांसों को रोकने से
उठती अकुलाहट
बडबडाती हूँ मैं
मैं अदना सा इंसान
न बाउंसर, ना बौडी बिल्डर
भला मुझसे क्या और कैसा डरना
मेरी बात से हिम्मत पा
एक नन्हा पौधा बोल ही पड़ा
हम तो डरते हैं
आप जैसे हर किसी से
क्योंकि हम नहीं जानते
कब किस वेश में आ जाय
यमराज रूपी कोई बिल्डर.

31 टिप्‍पणियां:

  1. प्रकृतिरुपी यमराज से कौन मुकाबला कर पाया है. सुन्दर पंक्तियाँ.

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  2. बहुत ही सार्थक प्रस्तुती ,आभार।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही सामयिक एवं सार्थक रचना रचना जी
    नमस्कार
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार (24-06-2013) के :चर्चा मंच 1285 पर ,अपनी प्रतिक्रिया के लिए पधारें

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    उत्तर
    1. मेरी कविता को चर्चामंच में शामिल करने के लिये धन्यबाद सरिता जी.

      हटाएं
  4. इन्ही निर्माण कर्ताओं की वज़ह से शहर उजड़ रहे हैं।
    एक दम सटीक रचना।

    जवाब देंहटाएं
  5. इन्ही निर्माण कर्ताओं की वज़ह से शहर उजड़ रहे हैं।
    एक दम सटीक रचना।

    जवाब देंहटाएं
  6. जब तक प्रकृति डरती है तब तक ठीक वरना उसे भी अपना रौद्र रूप दिखाना आता है ।

    जवाब देंहटाएं
  7. प्राकृति डरती नहीं अपनी बात विनम्रता के कहने का प्रयास करती है ... नहीं तो रोडे रूप तो दिखाना आता है उसे ....

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  8. वनमाफिया पर करारा व्यंग्य -

    महानगर ने फैंक दी मौसम की संदूक ,

    पेड़ परिंदों से हुआ जब जब बुरा सुलूक .

    पेड़ पांडवों पर हुआ ,जब जब अत्याचार ,

    ढांप लिए वटवृक्ष ने तब तब दृग के द्वार .

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  9. अपने विकास या कहें स्वार्थ को लेकर इतने बेखबर हैं कि पेड़-पौधों के ये बातें ज़्यादातर लोग सुन ही नहीं पाते ।

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  10. काश सब पहले ही समझ जाते
    सार्थक अभिव्यक्ति

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  11. बहुत गुमान था,नदियों को बांधते, मानव
    केदार ऐ खौफ में ही, उम्र, गुज़र जायेगी !

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  12. देखती हूँ हरी भरी घास
    छोटे नन्हें पौधों को अपनी छत्रछाया में
    बढ़ने और पनपने का अवसर देते

    Main Bhi Ek Chhota-Mota Lekhak Hu
    Utsahbardhan & Sujhav Dete ranha.
    Panap Jaunga.

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  13. सुषमा तीनों लोक की कुल होते हैं पेड़ .

    यहाँ गुल का एक अर्थ गुल होना भी है बिजली की तरह गायब होना है विलुप्त होना है वनस्पति सा .

    बढ़िया पोस्ट .

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  14. विचारणीय ....प्रशंसनीय रचना

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  15. बहुत सुंदर कमाल की भावाव्यक्ति

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  16. सामयिक प्रस्तुति ....
    ऊपर वाली के आगे किसी का जोर कहाँ ..

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  17. विकास के पीछे छिपी विनाश के सूक्ष्म बीज को आपने सही पहचाना है रचना जी

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  18. बिल्डर, टिंबर मर्चेन्ट, नदियां प्रदूषित करने वाले उद्योगपती, कितने कितने रूप में आते हैं यमराज ।

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  19. सार्थक प्रस्तुति..अब तो चेतें..

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  20. बहुत ही सामयिक और सार्थक प्रस्तुतीकरण ....मेरी एक रचना की कुछ पक्तियाँ याद आ गईं..."आदमी में ही है देवता आदमी में ही शैतान है"...बहुत-बहुत बधाई...
    @मानवता अब तार-तार है

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  21. प्रकृति की विनाश लीला अपरम्पार है सुन्दर भाव युक्त पोस्ट बधाई

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  22. सच में प्रकृति के साथ हम विकास के नाम पर खिलवाड़ कर रहे हैं...बहुत सुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति...

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  23. विचारणीय एवं प्रशंसनीय अभिव्यक्ति...

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  24. प्रकृति की विनाश लीला....सार्थक प्रस्तुतीकरण रचना जी

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  25. इतना डर मेरे भीतर पहले कभी नहीं था। आपने इसकी मार्मिक प्रस्तुति की है। आभार

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