मेरे दुश्शासन
वो ख़त
जो मैंने तुम्हें लिखे थे
हाँ, वो अनकहे ख़त
मैंने आज भी सहेज कर रखे हैं
मेरी अलमारी में बिछे
अखबार की तहों के भीतर
आज अचानक
वो फिर हाथ लग गये
खो गयी थी मैं
उन पुरानी बातों में
मैंने देखा
मेरी सुधियों का चीर थामे
तुम आज भी निर्भीक
वहीँ खड़े थे
छोड़ आई थी जहाँ मैं
तुम्हें बरसों पहले
तुम मुझे अच्छे लगे
इतने अच्छे कि
मुझे मैं द्रौपदी और तुम दुश्शासन लगे
मैंने तुमसे कोई विनती नहीं की
मैंने नहीं पुकारा किसी कान्हा को
क्योंकि मैं
चीर हरण चाहती थी
आज मैं अपने अंतर्मन को
अनावरित करना चाहती थी
अपनी भावनाओं को
निर्वस्त्र कर देना चाहती
तुम्हारे आगे
पर तभी
लाज के कान्हा ने अपनी
उपस्थिति दर्ज करा दी थी
द्रौपदी और दुश्शासन के
मौन संवाद के बीच
आज मुझे कान्हा का
हस्तक्षेप नहीं भाया
फिर क्या था
कान्हा ने अपना काम कर दिखाया
बढ़ता रहा सुधियों का चीर
गढ़ता रहा मन में पीर
बहता रहा नैनों से नीर
बस इतना ही सह सकी मैं
इससे ज्यादा कुछ और न कह सकी मैं
मेरे दुश्शासन
सहेज ली हैं मैंने वो अनछुई सांसें
फिर अपने सीने मैं
समेट ली हैं चंद अनकही बातें
मैंने अपने माथे के पसीने में
जाने कितने जनम लगेंगे
फिर सुधियों का दामन सीने में