विस्तार
मेरे नैनों के नीलाभ व्योम में,
एक चन्दा, एक बदली और
कुछ झिलमिल तारे रहते हैं.
सावन में,
जब घनघोर घटायें उमड़ घुमड़ कर,
आँखों में खो जाती हैं.
चन्दा, तारे सो जाते हैं.
वर्षों मरु थे, जो पोखर सारे,
स्वयमेव ही भर जाते हैं.
कभी शीत बहे तो,
चंदा, तारे ओढ़ दुशाला,
लोचन में सो जाते हैं.
दिग्भ्रमित हुए कुछ खग विहग.
जब दृग में वासंत मनाते हैं.
उषा किरण की रक्तिम डोरें,
जाने अनजाने,
नख में उलझाते जाते हैं.
तब पलकों की झालर के कोनें ,
आप ही खुल जाते हैं.
ओस के मोती सरक - सरक कर,
आंचल में भर जाते हैं.
गर्मी की,
तपती रातों में चख में खर उग आते हैं.
भीष्म की सी शर शैय्या में,
तब चंदा तारे अकुलाते हैं.
जाने क्या कुछ खोया मैंने,
ये झिलमिल तारे पाने को.
पर सावन रहा सदा नयनों में,
जाने क्यों मधुमास न आया.
अम्बर रहा सदा अंखियों में,
पर मैंने क्यों विस्तार न पाया!
मैंने क्यों विस्तार न पाया!!