मेरा मन
बांच रही थी रात चांदनी
जब मेरी आँखे और मेरा मन.
पूनम के नयनों से भी छलके थे
कुछ सुधा सने हिम कण.
कुछ सुधा सने हिम कण.
उस क्षण
मौन थी भाषा, मौन थे शब्द,
शब्द शक्तियां मचल रहीं थीं
अंतर अन्दर बिफर रही थी
सांसें तन से छूट रहीं थीं
हिमखंडों सी टूट रहीं थीं
टूटी साँसों की तूलिका
ओस की बूंदों के आईने में
कुछ चित्र अधूरे खींच रहीं थीं
दृग कोटर भी भींज रहे थे
अरु मन पाती को सींच रहे थे
क्योंकि
पास कहीं तुम, किसी ओट में
पास कहीं तुम, किसी ओट में
निशा, यामिनी और किरण को
अपनी बाहों में भींच रहे थे
और तब मैं
अपने उर के शूलों को
अपने लहू से सींच रही थी.