रविवार, 25 सितंबर 2011

आगोश

आगोश 




रात के आगोश से सवेरा निकल गया, 

समंदर को छोड़ कर किनारा निकल गया.   


रेत की सेज पे चांदनी रोया करी,   

छोड़ कर दरिया उसे, बेसहारा निकल गया.


सोई रही जमी, आसमाँ सोया रहा, 

चाँद तारों का सारा नज़ारा निकल गया.


ठूंठ पर यूँ ही धूप ठिठकी सुलगती  रही, 

साया किसी का थका हारा निकल गया. 


गूंगे दर की मेरे सांकल बजा के रात, 

कुदरत का कोई इशारा निकल गया.  


घुलती रही मिसरी कानों में सारी रात,

हुई सुबह तो वो आवारा बंजारा निकल गया.


बाँहों में उसकी आऊं, पिघल जाऊं,
ख्वाब ये मेरा कंवारा निकल गया.

मेरी तस्वीर पे अपने लब रख कर, 

मेरे इश्क का वो मारा निकल गया.

चित्र मेरे कैमरे से, अन्य चित्रों के लिये मेरे दूसरे ब्लॉग "Perception" जिसका पता है shashwatidixit.blogspot.com, पर भी जाएँ.

रविवार, 18 सितंबर 2011

बाज़ार


बाज़ार 

एक तरफ शेयर बाज़ार की अस्थिरता
रोज गिरते चढ़ते भाव 
आसमान छूते 
सोने चांदी के दाम.
बाजार से दुखी 
हार्ट अटैक और आत्मा हत्या से मरते लोग 
दुसरी तरफ मेरी जमा पूंजी 
बाज़ार के उतार चढ़ाव से बेपरवाह. 
सोने चांदी के आभूषण
लॉकर की चहारदीवारी में
इत्मिनान से हैं 
ई टी एफ गोल्ड
सुस्ता रहा है मस्ता रहा है.
मेरा इकलौता शेयर..... 
कब लिया था....याद ही नहीं 
शायद बीस पच्चीस बरस पहले.  
याद है तो बस इतना
कि लोगों ने 
उसके बाज़ार भाव को टटोला  
उसके तिमाही, छमाही और सालाना 
नतीजों की पड़ताल की  
उसमे मेरे भविष्य की संभावनाओं को तलाशा  
और नकार दिया.  
पर मैं दृढ थी 
नहीं तलाशा मैंने उसमे भविष्य.
वो भी आम शेयर की तरह घटता बढ़ता है. 
पर वो जब भी घटा 
घटा है मेरे अंदर 
क्रोध, इर्ष्या, अशांति 
और समाज से अलग रहने की प्रवृति.
जब भी बढ़ा वो 
बढ़ा है मेरे अंदर, मेरे लिए 
प्रेम, आत्म सम्मान, आत्म विश्वास. 
उसके और दूसरों के लिए
प्रेम, सम्मान व निष्ठा.   
आज लोग
पूछते हैं मुझ से 
पिछले जन्म में 
बहुत गहरी गंगा में जौ बोये थे क्या?

रविवार, 11 सितंबर 2011

पुल

पुल


एक पुल ने दिल लगाया भी तो पहियों से,
छोटे-बड़े, मोटे-पतले.
दिल भले ही साफ़ रहा हो
पर दिखने में एकदम काले. 
देता रहा अपने चौड़े  सीने पर
सबको सहारा,
प्यार, लाड, दुलार
रौंदते रहे पहिये उसे हर दम
नहीं मिला उसे एक पल भी आराम
बदले में
नहीं माँगा उसने कभी
सीमेंट, सरिया, पानी, पेंट.
कभी सुना था उसने
बिन मांगे मोती मिले
मांगे मिले न भीख.
पर एक दिन
टाटा, बजाज, महिंद्रा, मारुती,
सबका प्यार सीने में दफ़न किये
अपने ही मौत मर गया बेचारा

रविवार, 4 सितंबर 2011

अहाता


अहाता
  

  
यादों के अहाते में उजड़ने बसने के कई किस्से हैं 
अवसाद  कि कहीं खाई, कहीं खुशियों के टीले हैं

गिरती हुईं दीवारें, कहीं छत से झड़ते पलस्तर हैं 
मिश्री सी मीठी बातें कहीं स्वर कर्कश और कंटीले हैं 

उम्मीद के दरख्तों से झूलती खुशामद की लताएँ है 
कहीं मायूसी के झाडों पे मुरझाये फूल पीले हैं 

चलती हूँ अकेले फिर भी साथ में कोई... है
लगता है उस पल, दिन कितने नशीले हैं

आँखों के जुगुनुओं से, दिखता अर्श का नज़ारा है
जिधर भी देखो मन को दिखती कंदीलें ही कंदीलें हैं 

उस सिसकती माटी की, अपनी अलग कहानी है 
वहाँ दफ़न कई वादे किसी के, आज भी सीले है    

इक मोड पे ठहरी हूँ, दिखती मुझे मंजिल है
मेरे घर से मंजिल का सफर उफ्फ्फ...रस्ते पथरीले हैं 

हर ओर कीचड़ है ज़मीं पे, चाँद  तारे भी भीगे हैं  
ये सब बारिश से नहीं मेरे आंसुओं से गीले हैं  

यादों के अहाते में उजड़ने बसने के कई किस्से हैं 
अवसाद  कि कहीं खाई, कहीं खुशियों के टीले हैं.
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