बसंत विभावरी
बांधी है गठरी वसंत ने जब से,
तपने लगी देह हवा की तबसे.
मिलन की खुमारी उतरी नहीं थी,
जुदाई के आँसू हैं राह में कब से.
मायूस फूलों की धड़कन अधूरी,
पराग औ भंवरें भी रूठे हैं रब से.
पत्तों का पेड़ों से लिखा है बिछुड़ना,
धरा पर विचरते ये फिर क्यूँ अजब से.
न धानी चुनरिया न पीला वो आंचल,
उड़ती है माटी जाने किसके सबब से.
ये ऋतुएं ये ऋतुओं की रानी महरानी,
बदलती हैं ये करवट कैसे गज़ब से.
बांधी है गठरी वसंत ने जब से,
तपने लगी देह हवा की तबसे.
रचना जी बहुत सुंदर रचना ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर.
जवाब देंहटाएंये ऋतुएं ये ऋतुओं की रानी महरानी
जवाब देंहटाएंउम्दा अभिव्यक्ति
सादर
बहुत लाजवाब ... बदलते मौसम के रंगों को बाँधने का प्रयास ...
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा प्रस्तुति ...
बहुत उम्दा,लाजबाब गजल,,,रचना जी ,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST : प्यार में दर्द है,
बहुत सुन्दर....
जवाब देंहटाएंसतरंगी सी रचना....
सादर
अनु
ये कविता लगी है मुझे और सुन्दर,
जवाब देंहटाएंपड़ी तपती ऋतु में ये बूँदें हैं जबसे!
ऋतु परिवर्तन को माध्यम से गहन चिंतन
जवाब देंहटाएंसुंदर कोमल रचना :)
जवाब देंहटाएंसुंदर सतरंगी चित्रण.....
जवाब देंहटाएंSUNDAR RACHNA
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन...
जवाब देंहटाएं:-)
Wah mausam kee badalti karwat ko kis khoobee se bayan kiya hai. Bahut sunder.
जवाब देंहटाएंबदलते मौसम की बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंमौसम पर सुन्दर शब्द वर्षा..
जवाब देंहटाएंवाह .... बहुत ही बढिया।
जवाब देंहटाएंबदलते मौसम की सुन्दर शब्द वर्षा..
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