शनिवार, 26 जनवरी 2013

राष्ट्रवादी


राष्ट्रवादी 
भ्रष्टाचार की कोख में
सांसों की डोर थामे
एक नया जीवन
कभी अनिच्छा,
कभी मात्र एक इच्छा
कई बार संस्कारो की उबकाई
कहीं सत्ता की अनिद्रा
कहीं सत्ता में ही निद्रा
कभी धन का अपच,
कहीं लालच की मितली
कही अनकही सुगबुगाहट
भाग्य की करवट
भ्रष्टाचार के लहू से
सिंचित नव जीवन
जन्म होता है
राष्ट्रवादी विध्वंस
राष्ट्रवादी भ्रष्टाचार
राष्ट्रवादी हिंसा का
जानती हूँ मैं
पर शायद अनभिज्ञ है वो
सत्य से
कि अभिशप्त है वो कोख
एक राष्ट्रवादी न जनने को।

रविवार, 20 जनवरी 2013

रातें


रातें

काली सी स्याह रातें
हर तरफ कांटे ही कांटे.
पथरीली सी ये धरती
रेतीली हैं चक्रवातें.

बुझता हुआ सा दीपक
उखडी हुई हैं साँसें.
व्याकुल सा है ये तन-मन
बोझिल हुई हैं ऑंखें.

आतुर सा ये जिगर है
कोई आह़त से दिल में झांके.
पल पल मरी हूँ इतना
कोई मेरा ग़म क्यों बांटे.

दो पल की ख़ुशी आस में
अटकी हैं चंद साँसें.
काली सी स्याह रातें
हर तरफ कांटे  ही कांटे.

रविवार, 13 जनवरी 2013

ख्वाब

ख्वाब

झलती रही पंखा साँझ सारी शाम,
रात बोझिल हुई चुप चाप सो गई.

मुंह ढांप के कुहासे की चादर से,
हवा गुमनाम जाने किसकी हो गई.

चाँद ने ली करवट, बांहों में थी चांदनी,
रूठी, छूटी, छिटकी, ठिठकी वो गई.

बदली के आंचल की उलझने की हठ,
आकाश की कलँगी भिगो गई.

बादल के बाहुपाश में आ कर दामिनी,
मन के सारे गिले शिकवे भी धो गई.

राग ने रागिनी को धीमे से जो छुआ,
वो बही, बह के कानों में खो गई.

आँखों में ख्वाब के अंकुर ही थे फूटे,
सुबह नमक की खेती के बीज बो गई.

सज संवर के पंखुरियों पे बैठी थीं जो,
आज वो ओस की बूंदें भी रो गईं.

मन की गठरी है आज भी बहुत भारी,
पर हाय मेरी किस्मत उसको भी ढो गई. 

रविवार, 6 जनवरी 2013

फुर्सत

फुर्सत



कटी हैं रातें मेरी ऐसी अक्सर
पलक से पलक न मिली.
तन्हा भटकती रही नींद सारी रात
इक नर्म बिछावन न मिली.
मन के अज्ञातवास में सब कुछ था
न मिली तो एक मैं न मिली.
रखा था बंद करके मुठ्ठियों को बहुत
किस्मत की लकीरें न मिलीं.
मुश्किलें गुजरीं हैं हम पे भी ऐसी ऐसी
कहीं आकाश कहीं धरती न मिली.
हर दम पाया है मंजिल को इतना दूर
पहुँच पाऊं ऐसी सूरत न मिली.
बढ़ाया है जब जब कदम मैंने
हवा पानी ओ मिटटी न मिली.
बन तो जाऊँ अर्जुन मैं भी
हाय पर वो मछली न मिली.
वो जो बैठा है थाम के डोर मेरी
छोड़ दे एक पल फुर्सत न मिली.
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