सूरजमुखी
बन के सूरजमुखी, तकती रही ताउम्र जिसे,
वो मेरा सूरज नहीं किसी और का चाँद निकला.
जब भी देखी तितलियाँ रंग बिरंगी उसने,
दिल धड़का, उछला, मचला सौ बार निकला.
मुझ पर न पड़ी मुहब्बत भरी नज़र उसकी,
ये शायद मेरी ज़र्द रंगत का गुनाह निकला.
इस क़दर ज़ुल्म ढाए हैं उसने मुझ पर,
पर दिल की बस्ती से वो आज भी बेदाग़ निकला.
दोष क्या दें बादलों को सूरज ढांपने का,
हाय! जब अपनी किस्मत में ही दाग़ निकला.
खड़े हैं आज भी मुंह उठाये तेरी ओर,
पर तू तो चलता फिरता इक बाज़ार निकला.
कभी तो रखेगा तू, दो जलते हुए हर्फ़ मेरी पंखुरी पे,
इसी हसरत में ये सूरजमुखी हर बार निकला.