रविवार, 30 सितंबर 2012

अंत


अंत
पहले से ही हताश
हवा के चेहरे पर
उड़ने लगी हैं हवाईयां.
जीवन के अंत का आभास
जो दिला रहे हैं उसके
अनवरत बढते नाखून
बचपन में सुना करती थी
चूहों के लगातार बढते दांत
उससे निजात पाने को.
अपना जीवन बचाने
और बढ़ाने को
सतत कुछ न कुछ
या सब कुछ
कुतरने की मज़बूरी.
पर ये हवा
चूहों की तरह
नहीं कुतरती कुछ भी
न ही खरोंचती है 
कुछ भी कहीं भी
अपने नाखूनों से
ये डालती है खराशें बस
पेड़, पौधों, टहनियों
और डालियों पर.
कभी मीलों चलने पर
मिल जाते हैं
इक्के दुक्के दरख्त.
जगती है खराश डालने
और जीने की कुछ आशा
अचानक पड़ जाता है 
उसका चेहरा पीला.
कहीं आगे निरा रेगिस्तान
तो नहीं देखा है उसने.

रविवार, 23 सितंबर 2012

मौत से बातें


मौत से बातें  

आज फिर मेरी मौत हो गयी.
अपनों से बिछुड़ने का ग़म क्या कम था
जो सारी दुनिया खफा हो गयी.
आज फिर मेरी मौत हो गयी
कब से पड़ा था मेरा जनाज़ा,
कोई कांधा देने  को   न था.
एक बची थी में अकेली
आज फिर मेरी मौत हो गयी.
अपना जनाज़ा अपने
कांधों पर ले के जो निकली
एक अजनबी की बददुआ लग गयी.
आज फिर मेरी मौत हो गयी
यूँ तिल तिल जीना,
यूँ तिल तिल मरना.
आज मौत इतनी बेखौफ हो गयी.
आज फिर मेरी मौत हो गयी.
यूँ चिंदा चिंदा जिंदगी
यूँ लम्हा लम्हा मौत
आज मौत जिंदगी से बड़ी हो गयी
आज मेरी आखिरी मौत हो गयी.

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

गतिशास्त्र


गतिशास्त्र

"जीवन चलने का नाम"
"चलते रहो सुबहो शाम"
"जीवन गति है"
"गति ही जीवन है"
जाने किसने,
कैसे
और क्यों कह दिया ये ?
क्यों नहीं देख पाते वो
इसके पीछे की गणित
और मेहनत.
तभी बात बेबात कहते हैं
"फ़ाइल और कागज़ चलते ही नहीं"
नहीं जानते हैं वो
गति में सापेक्षता होती हैं.
वस्तु के भार और
उस पर लगे बल की दिशा में जाने की
फाइल पर जितना भारी बण्डल
उतनी ही उसकी गति
जाने क्या सोचता होगा
गति के नियम बनाने वाला,
अपने और अपने नियम के बारे में.
आश्चर्य होता है
जब गति के नियमों की धज्जियाँ उड़ाता हुआ,
कोई आस्तित्वान हीन कागज़
किसी भारी बण्डल के प्रभाव में,
त्वरित गति से गंतव्य पर पहुँच
आस्तित्व में आ जाता है.
तब शायद गति के नियम बनाने वाला ही
आस्तित्वहीन हो जाता है.

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

संवेदनाएँ


पलकें जब आँखों पे झुकती हैं 
नींद कहीं खो जाती है।
आंसुओं के अनंत जुलुस में 
ध्वज थामें चलती जाती हूँ। 


पिछले कुछ समय से व्यस्तता के कारण अनियमित रही ३ सितम्बर २०१२ को मेरे पूजनीय ससुर जी श्री अरुण कुमार का  बीमारी के बाद देहावसान हो गया। उनकी तेरहवीं १४/0९/२०१२ को मेरे निवास स्थान बी १२, प्रथम तल, प्रीत विहार, नई दिल्ली पर है। कृपया यहाँ उपस्थित होकर उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करें. 

रविवार, 2 सितंबर 2012

मुक्तक

मुक्तक


1.

एक बेबस सी औरत
जो खड़ी है ऐसे मंज़र पर
एक हाथ में कलम
दूसरे में दस्तरख्वान है
एक तरफ लज़ीज़ पकवान हैं
दूसरी तरफ दुःख की दास्तान है.

2.

लोग बन्दों को खुदा बनाते हैं
मैंने खुदा को बन्दा बनाने की
हिमाकत की है
वो जो बोलता नहीं
समय से पहले
अपनी गठरी खोलता नहीं
लोग कहते हैं
वही खुदा है
पर हर बन्दा जो हमको मिला
खुदा हो गया
खुदा की तरह न बोला, न मुस्कराया,
बस फना हो गया.

3.


आज हवा में कुछ हरारत सी है
कोई हया से पिघल गया होगा.
आज हवा में शरारत सी है
कोई शरीर दिल मचल गया होगा.
आज हवा में कुछ नमी सी है
कोई आंख भिगो गया होगा.
आज हवा में कुछ कमी सी है
कोई रुखसत हो गया होगा.
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