अंत
पहले से ही हताश
हवा के चेहरे पर
उड़ने लगी हैं हवाईयां.
जीवन के अंत का आभास
जो दिला रहे हैं उसके
अनवरत बढते नाखून
बचपन में सुना करती थी
चूहों के लगातार बढते दांत
उससे निजात पाने को.
अपना जीवन बचाने
और बढ़ाने को
सतत कुछ न कुछ
या सब कुछ
कुतरने की मज़बूरी.
पर ये हवा
चूहों की तरह
नहीं कुतरती कुछ भी
न ही खरोंचती है
कुछ भी कहीं भी
अपने नाखूनों से
ये डालती है खराशें बस
पेड़, पौधों, टहनियों
और डालियों पर.
कभी मीलों चलने पर
मिल जाते हैं
इक्के दुक्के दरख्त.
जगती है खराश डालने
और जीने की कुछ आशा
अचानक पड़ जाता है
उसका चेहरा पीला.
कहीं आगे निरा रेगिस्तान
तो नहीं देखा है उसने.