विरक्ति
सब कहते हैं
मेरी माँ ने
मेरे शरीर में रोपी थीं
कुछ नन्हीं कोपलें
गन्ने की
तब जब थी मैं
उनके गर्भ में
समय के साथ बढती रही
मैं और वो फसल
हंसना, खिलखिलाना,
हँसाना, मिठास बिखेरना
मेरा पर्याय हो गया
अचानक उम्र के
किसी मोड पर.
छूट गया सब कुछ.
सूखने लगी मैं
और वो फसल
जमने लगा शरीर के भीतर
गुड, गाढ़ी चिपचिपी
चाशनी और शर्करा.
अचानक किसी
चिरपरिचित आवाज का
ये पूछना
तुम वही हो ना
जो अपनी बातों से
हवाओं में मिश्री
घोला करती थीं कभी !
खोजने लगी अपने आपको
झाँका अपने भीतर
ये मैं हूँ ?
पाया उपेक्षित पड़ा
मिठास का भंडार.
अब हँसने मुस्कुराने
चहकने महकने लगी हूँ
बिखेरना चाहती हूँ
मिठास एक बार फिर
उम्मीद है
जल्दी ही लहलहाएगी
गन्ने की कोपलें
जो माँ ने रोपीं थीं
जब मैं थी उनके गर्भ में.