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रविवार, 9 जून 2013

आग

आग

सुलग रही हूँ जाने कब से
समझने लगी थी
नाते रिश्ते दुनिया जबसे
कभी महकती
सबको महकाती
खुशबू बिखेरती
कभी धुआं धुआं
भीतर बाहर सब तरफ
कालिख ही कालिख
जलना जलना सुलगना
मेरी आदत हो गई
उम्र के इस पड़ाव पर सुलग.
नहीं जल रही हूँ आज भी
पर एक लौ की तरह
नहीं छोड़ती अब धुआं
सुगंध या दुर्गंध
धुन आज भी वही
जलना जलाना
अपने भीतर बाहर
और आसपास
फैलाना तो सिर्फ प्रकाश
राह दिखाना अँधेरा दूर करना
कभी मैं अगरबत्ती सी
जला करती थी
आज दिए सी जल रही हूँ.

रविवार, 5 मई 2013

शमा

शमा


कहते हैं उसे
दर्द नहीं होता
वो किसी के प्यार में
पागल नहीं होता
पलक पांवड़े नहीं बिछाता
गिरता नहीं बिखरता नहीं
बूंद बूंद रिसता नहीं
बहता नहीं टूटता नहीं
कल एक मोमबत्ती को
दिए के प्यार में
जलते सुलगते
बिखरते टूटते
सीमाओं को तोड़ते देखा
और दिया
एक जलन तपिश
आग रौशनी थी उधर
फिर भी
अपनी ही सीमाओं में
बंधा शांत
एक ठहराव
एक अकेलापन
अचानक देखती हूँ
लौ के एक भाग का
टूटना गिरना स्याह होना
अँधेरे में खो जाना
क्या इसी को कहते
दीप तले अँधेरा.
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