मंजिलें
कैद हैं आज भी वो मंज़र इन नज़ारों में,
जब हम भी गिने जाते थे प्यारों में.
हँसते हंसाते खिलखिलाते याद आते थे,
कभी हम भी सबको बहारों में.
अपने कांधों पे उठाये अपनी ही टहनियां,
खड़े हैं कितने ही दरख़्त कतारों में.
उड़ती है धूल, ओढ़ लेते हैं धूल की चादर,
फिर भी खड़े हैं वो आज तलक राहों में.
आ गया पतझड़, रूकती नहीं धूप तक उनसे,
शुमार हो गए वो भी, मेरी तरह बेचारों में.
रूठ जाती है, अब तो मंजिलें भी हमसे,
शिकवे भी करती हैं हमसे इशारों में
सिखा मुझको मर के जीने का हुनर, ऐ दरख़्त!
डरती हूँ, गिनी जाने से मैं बेसहारो में.
मरते हैं यहाँ लोग रोज, न जाने कितने,
मर के भी जीता है कोई एक हजारों में.
यूँ तो जिगर छलनी, कई बार हुआ मेरा,
शामिल नहीं हूँ फिर भी अश्कबारों में.
यहाँ दूर तलक कोई अपना नहीं मिलता यारों,
आओ लौट चलें, बसें फिर एक बार तारों में.