रविवार, 26 अप्रैल 2015

इसे निमंत्रण न कहो

इसे निमंत्रण न कहो

कुछ दिन पहले एक विवाह निमंत्रण ने झकझोर दिया. न इसे पढकर न इसे देखकर लगा कि यह निमंत्रणपत्र है. यह समाचार पत्र में छपे किसी समाचार की तरह एक पैराग्राफ मात्र था.

पूर्व पुलिस निदेशक की पुत्री आई ऐ एस अधिकारी और नेत्र विशेषज्ञा की पुत्री, जिसने भारत के एक प्रतिष्ठित संस्थान से डिग्री ली है, का विवाह आई एफ एस  अधिकारी के पुत्र , जो भारतीय राजस्व सेवा में सहायक आयुक्त है, से हो रहा है. उक्त अवसर पर प्रीतिभोज में सम्मिलित हों. दर्शनाभिलाषी मात्र पति और पत्नी. 

ना विवाह में सम्मिलित होने का आग्रह ना कार्यक्रमों की कोई जानकारी. मन आहत  हुआ और यह कविता बनी.
इसे निमंत्रण न कहो
 
मैं अपनों की सफलता को 
अखबार करती क्यूँ फिरूं 
जताने को ये बहुत 
मेरी निगाहे नूर है
 
हो सको मौन दो पल तो कहो 
पर इसे निमंत्रण न कहो
 
तुम पर सिमट कर गई 
ये निरी दुनिया तुम्हारी 
रिश्तों का ये ह्रास है 
ये निरा उपहास है
 
कुछ विनम्रता ला सको तो कहो  
पर इसे निमंत्रण न कहो
 
नेत्र विशेषज्ञा हो तुम सब जानते हैं 
आँखों में टांके रोज  कितने ही लगाती 
उधड़े हुए रिश्तों की सीवन कभी झांक पाती 
रिसते लहू के आईने को ताक पाती

सुई में रिश्ते पिरो लो तो कहो 
पर इसे निमंत्रण न कहो

कुछ खोजती कुछ ढूंढती बिसरी कहीं 
छोटी कहीं मोटी कहीं धुंधली कहीं 
नमक की खेती लिये, गीली कहीं सीली कहीं   
बेनूर आँखों में कभी, झांकती हो 
 
बेवजह खारा कभी आंख का पानी पिया हो तो कहो 
पर इसे निमंत्रण न कहो

लाडली को कुटुंब की  
उपलब्धियों में तौलती 
अप्रत्याशित प्यार में कभी 
देखा कभी तौला कभी है
 
मुस्कुराहट पर कभी निहाल हो तो कहो 
पर इसे निमंत्रण न कहो
 
कुर्सी ही जिंदगी है जानते हैं 
उसके भी पाए तुमको पहचानते हैं 
पर अंत समय चार कांधे ही तानते हैं 
मुझे भी बहुत से कांधे मानते हैं
 
उपलब्धियों के चारों कांधों को टटोलो तो कहो 
पर इसे निमंत्रण न कहो

करबद्ध प्रार्थना है
 
इसे  अपने कुटुंब कि उपलब्धियों का चित्रण कहो 
अपनों के ही बीच का मंत्रण कहो 
बेवजह रेवड़ी वितरण कहो 
पर इसे निमंत्रण ना कहो   
पर इसे निमंत्रण न कहो.

गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

श्री गणेश

श्री गणेश
कहते हैं लोग, 
करती हूँ मैं अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन 
भली भांति. 
हर परीक्षा में उत्तीर्ण होने का भरसक प्रयास 
कठिन परिस्थितियों में संयम
शायद इसीलिए भगवान ने दी मुझे दो बेटियां.
सोचने लगी 
पति और पुत्र के दीर्घायु व स्वस्थ्य जीवन के लिए हैं
अनगिनत व्रत उत्सव और त्यौहार 
पर केवल 
बेटियों के लिए कुछ भी नहीं 
फिर क्या था 
होने लगा घर में हर दिन उत्सव 
हर दिन बेटियों के नाम 
नहीं पाला बेटियों को बेटों कि तरह कभी 
नहीं कहा मेरी बेटियां ही मेरा बेटा हैं 
आखिर बेटी तो बेटी ही है ना 
अब मुझे भी विश्वास हो चला है 
सच कहते हैं लोग 
मैं अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन 
पूरे समर्पण से करती हूँ 
मेरे विवाह के पूरे अट्ठाईस वर्ष बाद 
३ नवंबर को मुझे प्राप्ति हुई 
पुत्र रत्न की 
प्रसन्नता,पीड़ा, प्रसव पीड़ा
कुछ भी अप्रत्याशित ना था.
फिर क्या था 
मैंने पहली बार 
अपने पुत्र के दीर्घायु व स्वस्थ जीवन के लिए रखा 
सकट चौथ का व्रत
जी हाँ 
मैंने अपने जमाता के लिए रखा सकट चौथ का व्रत. 
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