रविवार, 30 अक्टूबर 2022

कुछ तो

कुछ तो 


सोचती हूं 

खोल दूं बचपन की कॉपियां और निकाल दूं 

सब कुछ जो छुपाती रही 

समय और समय की नजाकत के डर से 

निकालूँ वह इंद्रधनुष और निहारूं उसे 

जो निकलता था 

मेरे बचपन की बारिशों में 

तब जब मैं बनाती थी पापा के लिए भांग के पकौड़े 

मां के न होने पर या होते हुए भी न होने पर 

निकालूं नानी की दी वो नन्ही बिंदिया 

उन्हें छू कर महसूस करूं, सजा लूं माथे पर 

जो पाबंदियों के कारण कभी सज न सकीं 

निकालूं नेल पॉलिश लगाने को मेरी नन्ही उंगलियां 

जो मचलती रही पूरे बचपन रंग भरने को  

रंग दूं उन्हें तितलियों के रंग में और तितली हो जाऊं

निकालूं बचपन की अधूरी नींदें 

सो जाऊं कहीं दुबक कर 

जो कभी मेरे हिस्से न आयी  

तब जब बनाती थी पापा के लिए खाना 

कहीं उन्हें देर ना हो जाए 

निकालूं चढ़ी त्योरियों के डर से 

दबी छुपी वह हंसी वो खिलखिलाहट 

हंसूं दिखाऊँ दसों दिशाओं को 

कि मैं भी हंस सकती हूं 

निकालूं वो पलक पांवड़े 

बिछा दूं मात्र अपने लिए 

जो बिछाए सदा मैंने सबके लिए 

निकालूं बचपन में लिखी कविताएं मेरी 

जहां छुपे हैं कुछ दर्द और पीड़ाएं मेरी  

जो तूफान की आशंकाओं के कारण 

कभी बाहर में ना आ सके 

निकालूं वह मसोसा मन 

वह रूपसी नवयौवना सी स्वचित्रित अपनी ही तस्वीर 

तब जब सखी सहेलियां व्यस्त थीं यौवन की खुमारीं में 

और मैं घर के कामों में 

निकालूं वह क्लास के लड़कों की बातें 

जो रखी थी छुपा कर 

मौका देख कर पड़ोस वाली भाभी से कहने को 

हाथ हैं कि थक गए हैं पन्ने पलटते पलटते  

पर नहीं तैयार है  

पन्नों में कैद बचपन लड़कपन खत्म होने को 

सोचती हूं आजाद कर दूं 

अपनी कॉपियों में बंद 

उस बचपन और तमाम तितलियों को 

उड़ लेने दूं

जी लेने दूं उन्हें भी खुली हवा में 

आखिरकार उन्हें भी हक है 

अब आजाद होने का 

एक आकाश होने का


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