hello
रचना रवीन्द्र
चारों तरफ फैला दुःख अवसाद और क्षोभ. रिश्तों पर ढ़ीली होती पकड़. अतीत के धूमिल होते पल क्षिन. वर्तमान में उन्हें एक बार फिर जी लेने की प्रबल उत्कंठा. कभी शब्दों के माध्यम से होती रचना की अभिव्यक्ति. कभी रचना के माध्यम से अभिव्यक्त होते कुछ शब्द.
शुक्रवार, 25 मार्च 2022
रविवार, 12 मई 2019
टंगी खामोशी
सभी ब्लॉगर मित्रों को मेरा नमस्कार.आज बहुत समय बाद ब्लॉग पर कुछ लिख रही हूँ .आप लोगों से अपनी ख़ुशी साझा करना चाहती हूँ .मेरी पहली पुस्तक प्रकाशित हुई है उसके बारे में आप लोगों को अवगत कराना था
ये किताब मेरी कविताओं का एक पुलिंदा नहीं, ये आइना है, जिसके सामने मैं अपने आप को रोज़ खड़ा पाती हूँ | देखती हूँ दवे पाँव सरकता समय, आईने को निगलती खामोशी, कभी सैलाब में बहती खामोशी, कभी सलीब पर टंगी खामोशी, कभी आँगन में बिखरी खामोशी | बस यही सब भूला, बिसरा, छूटा, छिटका, ठिठका सहेजने की कोशिश मात्र है ये संकलन |
कुछ कहूं न कहू की जद्दोजहद फिर चाहें वो खुशबु की तरह छूमंतर होता बचपन हो, स्कूल कॉलेज को जाती वो सड़कें हों, आगन में फूटती हंसी और उसके पीछे सहमे हुए चंद सवाल, दुआ के लिए उठे माँ के हाथ हो या माँ के खूबसूरत चेहरे पर चढ़ता पर्त्-दर-पर्त दर्द का मुल्लमा, आँखों को स्याह कर देने वाली समाज की कालिख हो या बचपन को ख्वावों में ढूढने का अनर्थक प्रयास |
रिश्ते खून के, हूँ प्यार के, दोस्ती के, समाज के जिस भी रिश्ते को ताउम्र पकड़ कर, जकड कर रखना चाहा सूखी सूनी रेत की तरह भरभराकर कर गिरते रहे | नहीं जानती रिश्तों की नीव कमजोर थी या मेरी उन पर पकड़ जरूरत से ज्यादा सख्त | जानती हूँ कुछ भी नया नहीं हूँ, सभी के साथ होता है ये सब पर सब के अनुभव अलग अलग है, उनकी छाप अलग अलग है | मन के किस हिस्से में कितना प्रभाव शब्दों के माध्यम से उतरता है औरो का तो पता नहीं पर मेरे अन्त:स्थल के एक एक तंतु ने महसूस किया है इसे |
मेरी कविताओं में कहीं विचार उद्वेलन तो कहीं भावों की तीव्रता मिलेगी, कहीं बेचैनी, आकांक्षाएँ और चिंताएं इनके केंद्र में हैं | मेरी कवितायेँ ख़ामोशी और शब्दों के बीच का सेतु है | मेरी खामोशी से जन्मे शब्द मुझे मुंह न खोलने को मजबूर करते रहे और रचनाएं रचती गयीं |
यूँ तो मैं कुछ बोलती नहीं
पर कलम को बोलना आ गया
यूँ तो मैं जुबान खोलती नहीं
पर आँखों को खोलना आगया
लोगों को कभी तोलती नहीं
पर शब्दों को तोलना आ गया
अपनी गांठे कभी खोलती नहीं
पर यूँ लगता है अब खोलना आ गया
आप यह किताब अमेज़न, फ्लिपकार्ट, शॉप क्लूज और ब्लुरोज पब्लिशर की वेबसाइट से ऑनलाइन खरीद सकते हैं |
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आपसे अनुरोध है कि पुस्तक पढने के उपरांत अपनी बहुमूल्य टिप्पणी, प्रतिक्रिया और समीक्षा अवश्य दें | इसके लिए आप मेरे वेबसाइट rachanaravindra.in पर या इमेल rachanadixit@rachanaravindra.in या rachanadixit@gmail.com द्वारा अथवा मेरे ब्लॉग पर डाल सकते हैं |
रविवार, 15 नवंबर 2015
अच्छे दिन
अच्छे दिन
खुश हूँ अच्छे दिन आए हैं
सदियों से झुग्गी बस्तियों में बसने वाले
सडान बदबू में रहने वाले
नाले नालिओं में पनपने वाले
अब नहीं रहते हैं वहां.
बदल गया है बसेरा
आयें है अच्छे दिन
रहते हैं साफ़ सुथरी हवा में
अति विशिष्ट व्यक्तियों के घरों में
दीदार करते हैं
अभिनेता अभिनेत्रियों का
छू पाते है उनका शरीर
उठना बैठना है
उच्चवर्गीय समाज में
अच्छे दिन आए हैं
सफर तय हो चला है
मच्छरों का
मलेरिया से डेंगू तक.
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रविवार, 8 नवंबर 2015
अभिशप्त
अभिशप्त
मैं चाँद हूँ
दागदार हूँ
अनिश्चितता मेरी पहचान है
कभी घटता कभी बढ़ता
कभी गुम कभी हाज़िर
मैं सूरज की तरह
चमकता नहीं
पर उसकी तरह
अकेला भी नहीं
मेरे साथ हैं अनगिनत
सितारों की चादर
मेरे न होने पर भी
टिमटिमाते हैं तारे
आने वाली है दीपावली
घुटने लगा हूँ
फिर एक बार
पूरी धरती जगमगाएगी
राम के स्वागत में नज़र आएगी
नहीं देख पाया
एक भी दीपावली
आज तक
हाँ
मैं एक दीपावली
के इंतज़ार में
अमावस का
अभिशप्त चाँद हूँ
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रविवार, 1 नवंबर 2015
मासूम चाँद भी
मासूम चाँद भी
यूँ ही एक दिन
पूंछा था चाँद से
क्यों घटते बढ़ते हो
क्यों रहते नहीं एक से
सूरज की तरह.
इधर उधर देखा
मायूसी को
भरसक छुपाया
बोला एक दीपावली की रात
देखने को
धरती की जगमगाहट
आँखों में भर लाने को
राम को शीश नवाने को
अनवरत प्रयत्नरत हूँ
सदियों से
कभी घटता
कभी बढ़ता
कभी दीखता
कभी छुपता
किसी भी तरह
किसी भी तरह
अमावस की
एक झलक पाने को ……
ये जुगाड़ की जिंदगी
हम ही नहीं जीते
ये चाँद भी जीता है
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रविवार, 25 अक्तूबर 2015
दशानन
दशानन
मैं रावण
अधम पापी नीच
सीता हरण का अक्षम्य अपराधी
सब स्वीकार है मुझे.
मैं प्रतिशोध की आग में जला था,
माना कि मार्ग गलत चुना था.
किया सबने भ्रमित मुझे
मार्ग दर्शन किया नहीं किसी ने.
मैं वशीभूत हुआ माया जाल के.
मैंने भी फिर किया
विस्तार माया जाल का.
देख सीता मुग्ध हुआ मैं.
ये दोष तो मेरा नहीं था
फिर भी मैं मानता हूँ
मैंने हरा सीता को तो क्या?
मैंने किया छल कपट तो क्या?
मैंने दिया सीता को प्रलोभन तो क्या?
पटरानी बनाने का मन बनाया तो क्या?
पूरी लंका को विधवा बनाया तो क्या?
नहीं किया स्पर्श
सीता को उसकी अनुमति के बिना.
वो पवित्र थी जैसी रही वो वैसी.
मरे दस सर तो दीखते हैं.
हाँ! मैं हर जन्म में
रावण ही बनना चाहूंगा,
आज का मानव नहीं.
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रविवार, 18 अक्तूबर 2015
एक रामलीला यह भी
एक रामलीला यह भी
यूं तो होता है
रामलीला का मंचन
वर्ष में एक बार
पर मेरे शरीर के
अंग अंग करते हैं
राम, लक्ष्मण,
सीता और हनुमान
के पात्र जीवन्त.
देह की सक्रियता
सतर्कता, तत्परता
और चैतन्यता के
लक्ष्मण की उपस्थिति
के बाद भी
मष्तिष्क का रावण
देता रहता है प्रलोभन
भांति भांति के जब तब
दिग्भ्रमित हुआ है
मन जब जहाँ
अपह्रत हुई है
ह्रदय की सीता तब तहां
आत्मा का राम
करता है करुण कृन्दन
अंतर्ज्ञान का हनुमान
करता है प्रयास
पुनर्मिलन का
आत्मा और ह्रदय का
राम और सीता की तरह
एक उम्र गुजर जाती है
अपने ही ह्रदय को
अपनी ही आत्मा से
मिलने में
एक सार करने में.
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रविवार, 11 अक्तूबर 2015
कुछ सपने मेरे
कुछ सपने मेरे
आज एक अजीब सी
उलझन, कौतुहल,
बेचैनी, उद्विग्नता है.
भारी है मन
और उसके पाँव.
कोख हरी हुई है
मन की अभी अभी.
गर्भ धारण हुआ है अभी अभी
कुछ नन्ही कोपले फूटेंगी,
एक बार फिर
डरती हूँ,
ना हो जाये
जोर जबर्दस्ती से
गर्भपात
एक बार फिर.
ना तैयार हो
दूध भरा कटोरा,
जबरदस्ती डुबोने को,
यह सच है
मेरी मन की कोख में
जन्म लेने को आतुर हैं.
फिर कुछ सपने मेरे
नहीं समझ पाई अब तक,
क्यों असमय ही
तोड़े जाते हैं
मौत की नींद सुलाए जाते हैं
जबरन मुझसे छीने जाते हैं
कुछ सपने मेरे,
क्या सपनों का भी
कोई लिंग होता है
पुल्लिंग या......
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रविवार, 4 अक्तूबर 2015
महात्मा
महात्मा
देखती आई हूँ बरसों से
अपनी ही प्रतिमा में कैद
महात्मा को धूप धूल
चिड़ियों के घोसले
और बीट से सराबोर,
मायूस
हर सितम्बर माहांत में
चमकते है,
मुस्कुराते हैं,
दो अक्टूबर को बाहर भी आते हैं.
हम सब के बीच
हमारे मन मष्तिष्क में
विचरते हैं
पर इस बार
कुछ भी नहीं हुआ ऐसा
अंग्रेजों से अहिंसा के
सहारे जीतने वाले
महात्मा
नहीं आए बाहर
कहीं जबरदस्ती हो ना जाये
उनका या उनकी पुरानी पीढ़ियों का
धर्म परिवर्तन
उनका अहिंसा का सिद्धांत
ही न बन जाए
हिंसा का कारण
एक बार फिर
बाहर ना आकर
किया है सत्यापित
अपने अहिंसा के सिद्धांत को
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रविवार, 27 सितंबर 2015
रिश्तों में जीवन
रिश्तों में जीवन
भूकंप में नहीं गिरते घर
गिरते हैं मकान
मकान ही नहीं गिरते
गिरती हैं उनकी छतें
छतें भी यूँ ही नहीं गिरती
गिरती हैं दीवारें
गिरातीं हैं अपने साथ छतें
फिर अलग अलग घरों के
बचे खुचे जीवित लोग
मिल कर बनाते हैं
पहले से कहीं अधिक
मजबूत दीवारों वाले मकान
फिर बनाते है घर
होते हैं तैयार
आने वाली किसी
आपदा विपदा के लिए
आओ सीखें
भूकंप और भूकंप पीडितों से कुछ
सजाएँ संभालें पिरोयें जीवंत करें
भूले बिसरे टूटे
अमान्य, मृतप्राय
रिश्तों को.
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