चंद सहमे हुए से लम्हे
कुछ भीगे हुए से पल
इन लरज़ती बुलंदियों पर
क्या होगा हशर अपना
पाने को मुकम्मिल मुकाम
आग पर चलने लगे हैं हम
कब बुलंदियों से
यूँ खाक़ में मिले हम
यूँ खाक़ में मिले हम
इस मुश्किल सफ़र में भी
खुश रहने लगे हैं हम
क्या बुलंदियां हो
या खाक़ हो जमीं की
पाने को चंद खुशियाँ
समझने लगे हैं हम
सहमे हुए हों लम्हें
या भीगे हुए हों पल
वक़्त की दहलीज़ पर
अब पलने लगे हैं हम