रविवार, 24 जून 2012

पत्थर


पत्थर

मैं हूँ पत्थर
खुशबू, ख़ुशी और 
सुर्ख रंग का सौदागर.   
पीसता हूँ, 
पिसता हूँ, 
देखता हूँ, 
सुनता हूँ,
समझता हूँ 
मौन रहता हूँ 
नहीं बजती 
शहनाई 
किसी घर
मेरे बिना 
हर दुल्हन की 
हथेलियों को 
सजाता हूँ,
मैं ही,
हर सजनी को 
उसके साजन से 
मिलाता हूँ
मैं ही     
मैं हूँ पत्थर
खुशबू, ख़ुशी और 
सुर्ख रंग का सौदागर. 
दूसरों की जिंदगी में 
रंग भरता
अपनी जिंदगी में 
गम भरता
नहीं आती 
मेरे लिए  
मेरे पास 
कोई ख़ुशी. 
नहीं आती 
मेरे लिए  
मेरे पास 
सुर्ख़  हथेलियाँ , 
सुर्ख़ जोड़ा 
और सजनी.
नहीं चढ़ता 
मुझ पर 
कोई सुर्ख़ रंग कभी.
मेरे पास रहती है 
बस उसकी सुगंध 
मैं वो पत्थर हूँ
रंग लाती है 
हिना जिस पर 
पिस जाने के बाद.
मैं हूँ पत्थर
खुशबू, ख़ुशी और 
सुर्ख रंग का सौदागर.  

रविवार, 17 जून 2012

सरकती धूप

सरकती धूप

ये गर्मियों की उमस 
ऊब भरी दोपहरी
बचती छिपती फिरती हूँ
इन सबसे
याद करती हूँ
सर्दियों की वो मखमली गुनगुनी धूप,
बेटियों को तेल की मालिश करना,
नहलाना, काला टीका लगाना 

बिछौना बिछाना,
थपकी देकर धूप में सुलाना    
थोड़ी थोड़ी देर में आना,
छू कर देखना,   
सरकती धूप के साथ 
बिछौना सरकाते जाना   
पर बेटियां तो अब 
बड़ी हो गयी हैं....
जी लेने को वो दिन दोबारा 
ले आई हूँ कुछ कच्चे आम 
तैयार की हैं नन्हीं नन्हीं फांकें 
बड़े प्यार से मलती हूँ मसाला 
भिगोती हूँ तेल में 
भरती हूँ दो नन्हीं बरनियों में
रखती हूँ धूप में 
कई बार जाती हूँ 
देखती हूँ हिलाती हूँ,
झकझोरती हूँ  
झांकती हैं मुस्कुराती हुई 
कुछ आम की फांके 
दो पल को तेल के बाहर 
फिर अलसाती हुई सरक जाती हैं 
डूब जाती हैं तेल में 
और मैं धूप के साथ साथ 
जगह बदलती रहती हूँ दिन भर   
यूँ लगता है 
आज भी धूप का सिरा पकड़े
खड़ी वहीँ हूँ 
जहाँ थी आज से बीस बाईस साल पहले 
पर सच तो ये है कि 
बेटियां तो बड़ी हो गयीं हैं अब.

रविवार, 10 जून 2012

जंगल और रिश्ते


जंगल और रिश्ते



कभी यहाँ जंगल थे
पेड़ों की बाँहें
एक दूसरे के गले लगतीं
कभी अपने पत्ते बजाकर
ख़ुशी का इज़हार करतीं
कभी मौन हो कर
दुःख संवेदना व्यक्त करतीं
न जाने कैसे लगी आग
सुलगते रहे रिश्ते
झुलसते रहे तन मन.
अब न वो जंगल रहे
न वो रिश्ते
जंगल की विलुप्त होती
विशिष्ट प्रजातियों की तरह.
अब अतिविशिष्ट और विशिष्ट रिश्ते भी
सामान्य और साधारण की
परिधि पर दम तोड़ रहे हैं.
रोक लो
संभालो इन्हें
प्रेरणा स्रो़त बनो
इन्हें मजबूर करो
हरित क्रांति लाने को
रिश्तों की फसल लहलहाने को
क्योंकि अब रिश्तों को
मिठास से पहले
अहसास की ज़रूरत है
कि कुछ रिश्ते 
और कुछ रिश्तों के बीज
अभी जीवित हैं.
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