शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

करवा चौथ


करवा चौथ 
 
इस करवा चौथ
नहीं महसूस हुई तुम्हारी कमी
एक रात पहले ही भर जो लिए थे
बहुत से टिमटिमाते तारे आँखों में
न भूख, न प्यास,
न व्यथा, न प्रतीक्षा.
महसूस करती रही
हर टिमटिमाते तारे में तुम्हें
दिन भर जगमगाती रही
उसी प्रकाश में मैं
तारों ने भी अच्छी दोस्ती
कर ली थी एक दूसरे से
जानते हो फिर क्या हुआ
शाम होते ही एक दूसरे का हाथ थाम
आपस में मिल गए सब
और मेरे लिए मात्र मेरे लिए
बना दिया एक बड़ा सा चाँद
फिर क्या था
भरपूर निहारा उसे, पूजा उसे, 
गले से लगाया उसे
अब आसमान में चाँद
निकले न निकले... 

रविवार, 28 अक्टूबर 2012

आशा


आशा

तिमिरपान कर लेती हूँ जब, चिमनी सा जी जाती हूँ 
आँखों में भर जाए समंदर तो, मछली सा पी आती हूँ 

सर सर सर सर चले पवन जब खुशियाँ मैं उड़ाती हूँ 
शब्दों के तोरण से कानों में घंटे घड़ियाल बजाती हूँ   
अंतस की सोई अगन को मध्धम मध्धम जलाती हूँ 
मूक श्लोक अंजुरी में भर कर नया संकल्प दोहराती हूँ   

तिमिरपान कर लेती हूँ जब, चिमनी सा जी जाती हूँ 
आँखों में भर जाए समंदर तो, मछली सा पी आती हूँ 

जीवन के इस हवन कुण्ड में अपने अरमान चढ़ाती हूँ
क्षत विक्षत आहत सी सांसें कहीं कैद कर आती हूँ 
भूली बिसरी बातों पर फिर नत मस्तक हो जाती हूँ 
आशा की पंगत में बैठे जो उनका दोना भर आती हूँ
   
तिमिरपान कर लेती हूँ जब, चिमनी सा जी जाती हूँ 
आँखों में भर जाए समंदर तो, मछली सा पी आती हूँ 

हिचकी या सिसकी हो कोई उसको थपकी दे आती हूँ 
शूलों की पदचापों पर फिर अपना ध्यान लगाती हूँ 
घावों में भर जाय नमक तो खारा जल भर आती हूँ 
पीड़ा में पीड़ा को भर कर पीड़ा कम कर आती हूँ   

तिमिरपान कर लेती हूँ जब, चिमनी सा जी जाती हूँ 
आँखों में भर जाए समंदर तो, मछली सा पी आती हूँ

रविवार, 21 अक्टूबर 2012

उड़ान

उड़ान



मिलता है जब भी 
कोई संदेश सहसा 
सुखद या दुखद 
जाग उठती है उत्कंठा 
वहाँ सम्मिलित होने की 
सबसे मिलने की 
सुख दुःख साझा करने की 
तैयार होती हूँ अकेले ही 
जानती ये भी हूँ 
सब कुछ बदल गया होगा 
शहर, सड़कें, लोग
आरक्षण, ई आरक्षण, 
तत्काल आरक्षण,
दलालों के बीच भटकती, 
पिसती लौट आती हूँ   
खोलती हूँ विन्डोज़ 
हो जाती हूँ सवार माउस पर 
जकड़ती हूँ उँगलियों से कर्सर को 
खोलती हूँ गूगल मैप्स 
और फिर ...
मेरा गंतव्य शहर, 
मुहल्ला, गली मकान...
दस्तक देती हूँ कर्सर से
खुल जाती हैं मन की 
किवडियां, किवडियां,
गले मिलती हूँ सबसे 
चाची, मौसी, मामी, भाभी, भईया   
हँसती हूँ, मुस्कुराती हूँ, 
खिलखिलाती हूँ 
इस बीच...
आँखों की कोरों में दबे आँसू
टपकते हैं टप्प टप्प ...
कोई भांप न ले 
मेरे मन की व्यथा 
बंद करती हूँ विन्डोज़, 
खोलती हूँ खिड़की  
ओढ़ती हूँ चेहरे पर शालीनता
और बस ...

रविवार, 14 अक्टूबर 2012

आत्महत्या


आत्महत्या 
व्यथित होती हूँ
जब पढ़ती हूँ
समाज में व्याप्त व्यभिचार
तनाव, बेचैनी, हताशा.
भाग दौड में जीवन हारते लोग
हर रोज कितनी ही आत्महत्याएं 
पुलिस, तहकीकात, शोक सभाएं.
मेरे घर में भी हुईं
कल कुछ आत्महत्याएं.
हैरान हूँ, शोकाकुल हूँ.
असमंजस में हूँ
बन जाती हूँ.
कभी पुलिस,
कभी फोरेंसिक एक्सपर्ट,
कभी फोटोग्राफर. 
देखती हूँ हर कोने से
उठाती हूँ खून के नमूने
सहेजती हूँ बिखरे अवशेषों को.
नहीं जानती कोई कारण इसका.
मेरी बेरुखी...अनदेखी...
या व्यस्तता.
पर हां ये सच है
मेरे दिल में रची बसी
मेरी करीबी कुछ किताबों ने
मेरी ही अलमारी की
तीसरी मंजिल से कूद कर
आत्म हत्या कर ली.

रविवार, 7 अक्टूबर 2012

इज़हार

इज़हार 

आंसुओं में आज अपने, 
फिर नहा कर

मैं अपने दर्द का, 
इज़हार करना चाहती हूँ

दूर ही रहना ऐ खुशिओं,
पास तुम आना नहीं

मैं अभी कुछ और पल, 
इंतजार करना चाहती हूँ

आज तक पल छिन मिले,
सब शूलों के दंश से

मैं शूल दंशों से,
अपना श्रंगार करना चाहती हूँ

पीर का हर एक मनका,
बांध के रखा था जो

मैं उसी माला की,
भेंट चढ़ना चाहती हूँ

बात जो हमने कही, 
वो कंटकों सी चुभ गयी

मैं अपनी कही हर बात, 
वापस लेना चाहती हूँ

रास्ता हमने चुना जो, 
आज मुश्किल हो गया

एक पल जो सुख मिले, 
तो मौत के ही पल मिले

मैं इसी अहसास को, 
जीवित रखना चाहती हूँ

आज तुमको साथ में,
अपने रुला कर

मैं आंसुओं की फिर, 
बरसात करना चाहती हूँ

आंसुओं में आज अपने, 
फिर नहा कर

मैं अपने दर्द का, 
इज़हार करना चाहती हूँ

रविवार, 30 सितंबर 2012

अंत


अंत
पहले से ही हताश
हवा के चेहरे पर
उड़ने लगी हैं हवाईयां.
जीवन के अंत का आभास
जो दिला रहे हैं उसके
अनवरत बढते नाखून
बचपन में सुना करती थी
चूहों के लगातार बढते दांत
उससे निजात पाने को.
अपना जीवन बचाने
और बढ़ाने को
सतत कुछ न कुछ
या सब कुछ
कुतरने की मज़बूरी.
पर ये हवा
चूहों की तरह
नहीं कुतरती कुछ भी
न ही खरोंचती है 
कुछ भी कहीं भी
अपने नाखूनों से
ये डालती है खराशें बस
पेड़, पौधों, टहनियों
और डालियों पर.
कभी मीलों चलने पर
मिल जाते हैं
इक्के दुक्के दरख्त.
जगती है खराश डालने
और जीने की कुछ आशा
अचानक पड़ जाता है 
उसका चेहरा पीला.
कहीं आगे निरा रेगिस्तान
तो नहीं देखा है उसने.

रविवार, 23 सितंबर 2012

मौत से बातें


मौत से बातें  

आज फिर मेरी मौत हो गयी.
अपनों से बिछुड़ने का ग़म क्या कम था
जो सारी दुनिया खफा हो गयी.
आज फिर मेरी मौत हो गयी
कब से पड़ा था मेरा जनाज़ा,
कोई कांधा देने  को   न था.
एक बची थी में अकेली
आज फिर मेरी मौत हो गयी.
अपना जनाज़ा अपने
कांधों पर ले के जो निकली
एक अजनबी की बददुआ लग गयी.
आज फिर मेरी मौत हो गयी
यूँ तिल तिल जीना,
यूँ तिल तिल मरना.
आज मौत इतनी बेखौफ हो गयी.
आज फिर मेरी मौत हो गयी.
यूँ चिंदा चिंदा जिंदगी
यूँ लम्हा लम्हा मौत
आज मौत जिंदगी से बड़ी हो गयी
आज मेरी आखिरी मौत हो गयी.

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

गतिशास्त्र


गतिशास्त्र

"जीवन चलने का नाम"
"चलते रहो सुबहो शाम"
"जीवन गति है"
"गति ही जीवन है"
जाने किसने,
कैसे
और क्यों कह दिया ये ?
क्यों नहीं देख पाते वो
इसके पीछे की गणित
और मेहनत.
तभी बात बेबात कहते हैं
"फ़ाइल और कागज़ चलते ही नहीं"
नहीं जानते हैं वो
गति में सापेक्षता होती हैं.
वस्तु के भार और
उस पर लगे बल की दिशा में जाने की
फाइल पर जितना भारी बण्डल
उतनी ही उसकी गति
जाने क्या सोचता होगा
गति के नियम बनाने वाला,
अपने और अपने नियम के बारे में.
आश्चर्य होता है
जब गति के नियमों की धज्जियाँ उड़ाता हुआ,
कोई आस्तित्वान हीन कागज़
किसी भारी बण्डल के प्रभाव में,
त्वरित गति से गंतव्य पर पहुँच
आस्तित्व में आ जाता है.
तब शायद गति के नियम बनाने वाला ही
आस्तित्वहीन हो जाता है.

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

संवेदनाएँ


पलकें जब आँखों पे झुकती हैं 
नींद कहीं खो जाती है।
आंसुओं के अनंत जुलुस में 
ध्वज थामें चलती जाती हूँ। 


पिछले कुछ समय से व्यस्तता के कारण अनियमित रही ३ सितम्बर २०१२ को मेरे पूजनीय ससुर जी श्री अरुण कुमार का  बीमारी के बाद देहावसान हो गया। उनकी तेरहवीं १४/0९/२०१२ को मेरे निवास स्थान बी १२, प्रथम तल, प्रीत विहार, नई दिल्ली पर है। कृपया यहाँ उपस्थित होकर उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करें. 

रविवार, 2 सितंबर 2012

मुक्तक

मुक्तक


1.

एक बेबस सी औरत
जो खड़ी है ऐसे मंज़र पर
एक हाथ में कलम
दूसरे में दस्तरख्वान है
एक तरफ लज़ीज़ पकवान हैं
दूसरी तरफ दुःख की दास्तान है.

2.

लोग बन्दों को खुदा बनाते हैं
मैंने खुदा को बन्दा बनाने की
हिमाकत की है
वो जो बोलता नहीं
समय से पहले
अपनी गठरी खोलता नहीं
लोग कहते हैं
वही खुदा है
पर हर बन्दा जो हमको मिला
खुदा हो गया
खुदा की तरह न बोला, न मुस्कराया,
बस फना हो गया.

3.


आज हवा में कुछ हरारत सी है
कोई हया से पिघल गया होगा.
आज हवा में शरारत सी है
कोई शरीर दिल मचल गया होगा.
आज हवा में कुछ नमी सी है
कोई आंख भिगो गया होगा.
आज हवा में कुछ कमी सी है
कोई रुखसत हो गया होगा.
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