अज़रबैजान यात्रा (भाग 10) - ऐतिहासिक अग्नि पर्वत और अग्नि मन्दिर की यात्रा
अग्नि पर्वत
आज
सुबह नाश्ता कर हम लोग होटल से निकल पड़े क्योंकि आज का कार्यक्रम बहुत ही व्यस्त
था और कई जगह जाना बाकी था। बस फटाफट निकल पड़े जलते हुए पहाड़ पर की सैर पर। यहां
आते ही एक ग़ज़ल का शेर याद आ गया -
पत्थर सुलग रहे थे कोई नक्श -ए - पा न था।
हम जिस तरफ चले थे, उधर
रास्ता न था।।
यहां तो पूरा पहाड़
सुलग रहा था। न जाने किसकी तलाश में कबसे ये पहाड़ न जाने और कब तक सुलगेगा।
आज दुनिया में केवल
मुट्ठी भर अग्नि पर्वत ही मौजूद हैं उनमें से अधिकांश अज़रबैजान में स्थित हैं।
यानारडाग (जलता हुआ पहाड़) बाकू के पास कैस्पियन सागर पर अब्शेरोन प्रायद्वीप पर बाकू
शहर से 25 किलोमीटर उत्तर पूर्व में एक पहाड़ी पर स्थित है और यहाँ आग लगातार जलती
रहती है। लपटें एक पतली, छिद्रपूर्ण बलुआ पत्थर की परत
से 3 मीटर तक हवा में उड़ती है। यह एक प्राकृतिक गैस की आग है जहाँ गैस का एक
स्थिर रिसाव लगातार मिलता है इसलिए यानारडाग से निकलने वाली लौ काफी स्थिरता से
जलती रहती है। यह जलता हुआ पर्वत गोबुस्तान के मिट्टी के ज्वालामुखियों से अलग है
क्योंकि यानारडाग में मिट्टी के ज्वालामुखियों की तरह मिट्टी या तरल का कोई रिसाव
नहीं होता है। तेज़ हवाएँ इन लपटों को कुछ विचित्र आकृतियों में बदल देती हैं जो
इस क्षेत्र में रहस्य को और बढ़ा देती हैं। बस जलते पहाड़ के दर्शन करने और कुछ
यादगार चित्रों को कैमरे में क़ैद करने के बाद हम निकल पड़े एक दूसरे सफ़र पर जो एक
मन्दिर है।
अज़रबैजान की राजधानी
बाकू के पास सुरखान शहर में स्थित एक मध्यकालीन मंदिर है जिसे ज्वाला मंदिर या
आतिशगाह कहते हैं। आतिशगाह का मतलब होता है आग का घर या सिंहासन। सुरखान शहर
अजरबेजान के आपशेरों प्रायद्वीप पर स्थित है जो कैस्पियन सागर से लगता है यहां की
जमीन से तेल रिसता रहता है और स्वयं ही कुछ स्थानों पर आग आप ही भड़क जाती है। आग
को पवित्र माने वाले पारसी धर्म के अनुयायियों के लिए भी धर्मभूमि रही है।
इस मंदिर की इमारत किसी
प्राचीन किले जैसी है लेकिन मंदिर की छत किसी हिंदू मंदिर जैसी ही है। इसकी छत पर
दुर्गा का त्रिशूल है। मंदिर के अंदर जो अग्निकुंड है, उससे लगातार आग की लपटें निकलती रहती हैं। मन्दिर में 26 कमरे हैं और हर
एक कमरा अलग धार्मिक विश्वास को दर्शाता है। नटराज की मूर्ति को यहाँ विशेष रूप से
स्थापित किया गया है। मंदिर की दीवारों पर
देवनागरी लिपि, संस्कृत और गुरुमुखी लिपि (पंजाबी भाषा) में
कुछ लेख भी खोदे गए हैं। इस आतिशगाह में शिलालेख की पहली पंक्ति भगवान गणेश की
वंदना करती है और दूसरी पवित्र अग्नि यानी ज्वाला की। यहां 14 संस्कृत, दो पंजाबी और एक फारसी के शिलालेख हैं। यहां के इकलौते फ़ारसी शिलालेख में
व्याकरण संबंधी त्रुटियां हैं। माना जाता है कि इस रास्ते से गुजरने वाले भारतीय
व्यापारियों ने मंदिर का निर्माण करवाया था। ऐतिहासिक साक्ष्यों के मुताबिक इस
मंदिर के निर्माता बुद्धदेव हैं, जो कुरुक्षेत्र के पास के
मादजा गांव के रहने वाले थे। मंदिर निर्माण की तारीख संवत् 1783 दीवार पर खुदी है।
ऐतिहासिक साक्ष्यों से
यह भी पता चलता है कि पहले मंदिर में भारतीय पुजारी हुआ करते थे, जो यहां प्रतिदिन पूजा-पाठ करते थे। जो लोग यहां आते थे उनमें भारतीय ही
ज्यादा होते थे लेकिन स्थानीय निवासी भी यहां पर मन्नत मांगने आते थे। यहां के
भारतीय पुजारी मंदिर छोड़ 1860 में पलायन कर गए थे। तभी से यह मंदिर बिना पुजारी
का है हालाँकि मन्दिर भजन वगैरह तो अभी भी बजाये जा रहे हैं। मन्दिर की सैर करने
के बाद हम लोग खाने के लिए निकल पड़े क्योंकि भूख जोरों से लगने लगी थी।
इस
पोस्ट में इतना ही अगली पोस्ट में निजामी स्ट्रीट और हैदर अलिएव सेंटर का
विवरण.....
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें