सूर्य का संताप
मैंने बचपन से आज तक
हर रोज़
सूरज को सुबह औ शाम
गंगा नहाते देखा है
जैसे मानो उसने
भीष्म प्रतिज्ञा कर रखी हो
गंगा में डुबकी लगाये बिना
गंगा के चरण स्पर्श किये बिना
न तो मैं धरती में प्रवेश करूँगा
न ही धरती से बाहर आऊंगा.
इधर कुछ दिनों से देखती हूँ
सूरज कुछ अनमना सा है
हिम्मत जुटा पूंछ ही बैठी मैं
किन सोंचों में गुम रहते हो
बड़ा दयनीय सा चेहरा बना कर
बोला मैं सोचता हूँ
भगवान से प्रार्थना करूं
कि इस धरती पर पानी बरसे
रात दिन पानी बरसे
और कुछ नहीं तो केवल
सुबह शाम तो बरसे.
मेरे चेहरे पे मुस्कान आ गयी
आखिरकार इसे भी
इन्सान का दुख समझ आ रहा है
फिर सोचा शायद स्वार्थी हो गया है
खुद इतनी लम्बी पारी
खेलते-खेलते थक गया है
कुछ दिन विश्राम करना चाहता है
मेरे चेहरे की कुटिल मुस्कान
देख कर वो बोला
तुम जो समझ रहे हो वो बात नहीं है
दरअसल मैं
इस गन्दी मैली कुचैली गंगा में
और स्नान नहीं कर सकता.
अवाक् रह गयी थी मैं
पूछा
अपनी माँ को गन्दा मैला कुचैला कहते
जबान न कट गयी तेरी.
जवाब मिला
अपनी माँ को इस हाल में पहुँचाने वाले
हर दिन उसका चीर हरण करने वाले
हर दिन उसकी मर्यादा को
ठेस पहुँचाने वाले
तुम इंसानों को ये सब करते
कभी हाँथ पाँव कटे क्या?
फिर मैं ही क्यों?
इसी से चाहता हूँ कि
सुबह शाम बरसात हो
तो कम से कम
मैं नहाने से बच जाऊँगा
सीधा दोपहर में चमकूंगा
अपना सा मुंह ले कर
कोसती रही मैं
अपने आपके इन्सान को.