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रविवार, 24 अक्टूबर 2010

तरंगें

तरंगें




पीछे घूम कर देखती हूँ.

कभी हम पास थे.

इतने, इतने, इतने,

कि सब कुछ साझा था हमारे बीच.

यहाँ तक की हमारी सांसे भी.

दूरी सा कोई शब्द न था, हमारे शब्द कोष में.

अब तुम इतने दूर हो.

कुछ अपरिहार्य कारणों से,

ऐसा तुम कहते हो.

इतने, इतने, इतने,

कि पास जैसा कोई शब्द न रहा,

अब हमारे शब्दकोष में.

कुछ अदृश्य तरंगें भेज रही हूँ तुम्हें.

महसूस कर जरा बताना,

मेरी सांसों कि गति.

पढ़ा है कहीं,

दो सच्चे प्रेम करने वालों के बीच,

होती हैं कुछ अदृश्य,

विद्दुत चुम्बकीय तरंगें,

जो बिना कुछ सुने,

मन का हाल जान लेती हैं.


(यह चित्र मेरी बेटी ने बनाया है, उसका आभार)

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