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रविवार, 9 जनवरी 2011

धागे

धागे




बाखबर से बेखबर होती रही,

समय की गठरी पलटती रही.

रातों को उठकर जाने क्यों,

मैं अपनी ही चादर सीती रही.

संस्कारों की कतरनें जोड़ी बहुत थीं,

फिर भी सीवन दिखती रही.

अपनों की झालर बनाई सही थी,

जाने किसमें तुरपती रही.

बातें चुन्नटों में बांधी बहुत थीं,

न जाने कैसे निकलती रहीं.

ख़ुशी औ ग़म के सलमे सितारों में,

मैं ही जब तब टंकती रही.

मिलाना चाहा रिश्तों को जब भी,

अपनी ही बखिया उधडती रही,

बेखबर से बाखबर होना जो चाहा,

रातों में समय को पिरोती रही.

हाथों को मैंने बचाया बहुत,

पर अंगुश्तानो से सिसकी निकलती रही.

सुराखों से छलनी हुई इस तरह,

आँखों में सुई सी चुभती रही.

जितना भी चाहा बाहर निकलना,

धागों में उतना उलझती रही.
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