दस्तक
इतने बरस बीत गए,
फिर दरवाजे पर सुधियों ने दी दस्तक है.
खिड़की से आने की,
उनके दिल में हसरत बाकी अब तक है.
महानगर की बयारी में,
मेरे आँगन की क्यारी में,
फल सब्जी तरकारी में,
अम्मा की नीली सारी में,
अपने सपने से बचपन की,
वो खुशबू,क्या जाने बाकी अब तक है.
अपनी आशा के पंख लगाना,
दूर कहीं फिर उड़ के जाना,
माँ से छुप छुप बातें करना,
रात रात रत जागे करना,
हर पल हँसना और हँसाना,
क्या सब,याद तुम्हें भी अब तक है.
इतने बरस बीत गए,
फिर दरवाजे पर सुधियों ने दी दस्तक है.
हंसी ठिठोली दिन भर करना,
रातों को फिर चुप चुप रहना,
बाहर भीतर सब कुछ सहना,
आँखों से पर कुछ न कहना,
सबकी सहमती पर मुहर लगाना,
यही नियति क्या अब तक है,
हमने तो स्वीकार किया है,
नये रिश्तों ने आकार लिया है,
इन रिश्तों को हमने अपना जीवन ये उपहार दिया है,
न हमने कोई प्रतिकार किया है,
इन रिश्तों में खुशियाँ बिखराना,
अपनी सांसों में सांसें बाकी जब तक हैं,
इतना सब कुछ बीत गया है,
सुधि कलश भी अब रीत गया है.
दे हमें वही संगीत गया है,
वो पल छिन सारे साथ लिए हम,
खड़े वहीं पर अब तक हैं.
इतने बरस बीत गए,
फिर दरवाजे पर सुधियों ने दी दस्तक है.
खिड़की से आने की,
उनके दिल में हसरत बाकी अब तक है.
जबलपुर वाली दीदी को साथ बिताये दिनों की याद दिलाने के लिए ख़ास
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