इत्मिनान है की वो खुश हैं
चलती हूँ जब भी,
उतरती चढ़ती हूँ सीढ़ियाँ,
आती हैं अजब सी आवाज़े,
घुटनों में हड्डियों से,
कभी कड़कड़ाती, खड़खड़ाती,
कभी कंपकपाती.
गुस्से में लाल पीला होते तो सुना था,
यहाँ तो नीली हो जाती हैं नसें.
दबोचती हैं हड्डियां उन्हें जब.
कभी खींचती हैं मांस,
कभी बनाती हैं मांस का लोथड़ा.
दर्द से सराबोर
न कोई हंसी,
ना खिलखिलाहट,
ना लोच.
कुछ भी तो नहीं रहा अब यहाँ.
मनाती हूँ नसों को,
दिखाती हूँ लेप का डर.
नहीं मानती वो.
कभी छुप जाती हैं,
हड्डियों के नीचे, कभी मांस के नीचे.
होती है सारी रात लुका छिपी,
इनकी मेरी नींद से.
खुश होती हैं वो कहती हैं.
कभी तुम थे, हम नाहीं,
अब हम हैं तुम नाहीं.
ये दर्द दरअसल नसों का तो कभी हड्डियों का सहारा ले कर अपना प्रभुत्व जमाता है ...
जवाब देंहटाएंसच की कविता है ये ...
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (06-07-2015) को "दुश्मनी को भूल कर रिश्ते बनाना सीखिए" (चर्चा अंक- 2028) (चर्चा अंक- 2028) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
सबका समय आता है
जवाब देंहटाएंशास्त्री जी मेरी कृति को शामिल करने के लिए आभार
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंदर्द का सत्य
जवाब देंहटाएंमेरे ही दर्द को शब्द दे दिये। अपनी तो यही कहानी है।
जवाब देंहटाएंएक अनूठा विषय जिससे सब का सामना कभी न कभी होता ही है. और शायद यह ही दर्द का सत्य है ...
जवाब देंहटाएंएक अनूठा विषय जिससे सब का सामना कभी न कभी होता ही है. और शायद यह ही दर्द का सत्य है ...
जवाब देंहटाएंभोगा हुआ यथार्थ शायद इसी को कहते हैं..
जवाब देंहटाएंसुंदर और गहन अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंआपकी कवितायें सहजता से गंभीर बातें कहती हैं.
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