याददाश्त
मैं कुंठित हूँ,
व्यथित हूँ,
क्षुब्ध हूँ,
क्या हृदय ही जीवन है ?
मैं भी तो हृदय की खुशी में खुश
उसके दुख,
असफलता,
दर्द, पीड़ा में
उसके साथ ही
ये सब अनुभव करता हूँ
फिर हृदय ही क्यों
क्या सही रक्तचाप,
हृदय गति
रक्त विश्लेषण
और
धमनियों में वसा
न जमने देना ही
जीवन है
जब भी हृदय होता है
क्षुब्ध, कुंठित,
मैं सहमता हूँ,
सिकुड़ता हूँ
अवसादग्रस्त होता हूँ,
भूल बैठता हूँ,
अपने आप को
धीरे धीरे देता हूँ
शरीर को
भूलने की बीमारी
मैं, हाँ! मैं
मस्तिष्क का
उपेक्षित हिस्सा
अध:श्चेतक (हाइपोथेलेमस) हूँ
जब भी किसी
अनहोनी के बाद
आता है चिकित्सक
जांचता है,
देता है,
दवाइयां जाने किसकी.
नहीं सोचता, है तो,
मेरे बारे में.
बहुत बढिया..रचना जी
जवाब देंहटाएंहृदय और मस्तिष्क के मध्य यह द्वंद्व ही तो मानव को जीवन भर कचोटता रहता है..दिल को महत्व दो तो दिमाग उपेक्षित रह जाता है और दिमाग की सुनो तो दिल सूना सा अनुभव करता है..दोनों में दोस्ती हो जाये तो बात बन जाये
जवाब देंहटाएंधन्यबाद यशोदा जी.
जवाब देंहटाएंविज्ञानं और भावनात्मक जीवन में गहरा तारतम्य स्थापित करती हैं आपकी रचनाएं ...
जवाब देंहटाएंबहुत गज़ब की प्रस्तुति है ...
सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और कुछ हट के
जवाब देंहटाएंअच्छी और सच्ची रचना
जवाब देंहटाएंhttp://savanxxx.blogspot.in
लीक से हट कर सुन्दर यथार्थ परक रचना |
जवाब देंहटाएंलीक से हटकर एक शानदार रचना प्रस्तुत की है आपने रचना जी !!
जवाब देंहटाएंभावनाओं और सोच की प्रतिस्पर्धा कभी ख़त्म नहीं होती ....क्या सही क्या ग़लत
जवाब देंहटाएंएक दम, अलग कविता ............गजब !! अच्छा लगा, नया पढ़ कर !
जवाब देंहटाएंमस्तिष्क को आधार बना कर पीड़ा को अभिव्यक्ति प्रदान करना । पहली बार देखा है पढ़ा है । रोचक भी लगा ।
जवाब देंहटाएंबहुत जबरदस्त ।
पीड़ा को अनुभूत करने वाले की पीड़ा का अनोखा विश्लेषण ।
जवाब देंहटाएंविज्ञानं और भावों का अद्भुत सामंजस्य...कुछ अलग सी लेकिन बहुत प्रभावी रचना..
जवाब देंहटाएंमष्तिष्क को काव्य रूप में समझना बहुत रुचिकर लगा ...
जवाब देंहटाएंbht hi utkrist lekhan
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