खिड़की
बरसों पहले नए शहर में
अपनों से दूर आई थी.
जब कभी ऊब जाती,
उकता जाती,
उदास हो जाती,
खोल लेती थी खिडकी.
भर लेती ताज़ा हवा,
नई सांसें.
बना लिए थे कुछ रिश्ते
भईया, भाभी, मौसी, चाची,
बुआ, जीजी, दादी, भतीजे, भतीजियाँ.
जी लेती थी सारे रिश्ते यहीं.
कभी छलछला जाएँ ऑंखें,
सांत्वना देने को उठते थे
कितने ही हाथ,
आंचल मेरी तरफ.
इतने बरसों बाद.
नहीं खुलती कोई भी खिड़की.
अब मेरे शहर में
हर खिड़की पर ए.सी. जो जड गए हैं.
कभी ऊब जाती,
उकता जाती,
उदास हो जाती हूँ
खोलती हूँ विन्डोज़
ढूंढती हूँ कुछ अपने,
कुछ पराये से लगते अपने
कुछ अपने से लगते पराये
छू कर देखती हूँ,
हर तस्वीर, खो जाती हूँ.
चू पड़ती हैं कुछ खारी बूंदे
गिर कर, छिटक कर,
छितरा कर बिखर जाती है
विन्डोज़ के उपर
खिड़की के विपरीत
फ़ैल जाती है यहाँ
हरारत उमस और ऊब
सोचती हूँ खिड़की ...विन्डोज़.
मात्र भाषा का अंतर है
या समाज, पीढ़ी,
मशीनीकरण, मानवीकरण
और सांत्वनाओं के बीच
खिंची एक महीन विस्तृत रेखा.