आतंक के साए
क्या रंग देखो क्या रंगों का त्यौहार
हर तरफ फैला है अन्धकार
अब न वो रंग, न फागुन की ठिठोली
हर तरफ है तो बस लाल रंग की होली
क्यों वो माँ गाए, क्यों वो बहन गुनगुनाये
क्यों पत्नी माथे पे, अबीर सजाये
जब रंग गया हो, सदा के लिए
लहू की होली में अपना ही चिराग़
क्यों नहीं दीखता अब अबीर में,
वो अबरक का चमकना
क्यों भूल जाता हैं चाँद,
होली की रात, कुछ घरों में निकलना
क्या तलेंगीं गुझिया, पकवान, वो ऑंखें,
लहू के कड़ाहे में,
जो जी रहे आज भी, आतंक के साए में
दूर तक दीखता है क्यों हर रंग
स्याह सफ़ेद और सुर्ख़
क्यूँ रूठ गए वो हमसे
इन्द्रधनुषी रंग, वो सुरमयी हवाएं,
क्यूँ अब फाग नज़र नहीं आती
उन्हीं को देखने को हमने
अपनी आँखों पे रंगीन चश्मे लगा रखे हैं