अतिथि
कुछ समय से
घर भर गया है
मेहमानों से.
घर ही नहीं
शरीर, मन, मस्तिष्क
चेतन, अवचेतन.
ये मात्र मेहमान नहीं
मेहमानों का कुनबा है.
सोचती हूँ
मन दृढ करती हूँ
आज पूंछ ही लूँ
अतिथि
तुम कब जाओगे
पर संस्कार रोक लेते है.
ये आते जाते रहते है
पर क्या मजाल
कि पूरा कुनबा
एक साथ चला जाये
शायद उन्हें डर है
उनकी अनुपस्थिति में
वो धरोहर जो मुझे सौंपी गई,
वो किसी और के
नाम न लिख दी जाय.
हाँ! चिंता, दुःख,
इर्ष्या, डर और
इनकी भावनाएं
मेरे मस्तिष्क में
स्थायी निवास कर रही हैं.
(चित्र गूगल से साभार)
सुंदर !
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 18 अगस्त 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद! "
जवाब देंहटाएंक्या बात...
जवाब देंहटाएंसच पूरा शरीर में मेहमानों का ही कुनबा बसा है और मन की मत पूछो सही कहा है मन की गति हवा से भी तेज होती है
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
कब रिक्त हो पाता है यह शरीर इन मेहमानों से...बहुत सुन्दर और गहन प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंगंभीर , गहन और सुन्दर कविता
जवाब देंहटाएंरिक्त होंने पर भी तो हम मुक्त नहीं हो सकते........ अच्छी कविता
जवाब देंहटाएंhttp://savanxxx.blogspot.in
जवाब देंहटाएंकितनी गहरी बात कितनी सहजता से कह दी
:)
ह्म्म्म सकूँ सा है रचना में
bahut hi sundar aurgahari abhivyakti ----rachna ji
जवाब देंहटाएंये मेहमान तो चिपके रहते हैं ... शरीर के साथ ही जाते हैं ... अतिथि नहीं घरवाले ही हैं ये ...
जवाब देंहटाएंआपकी कविता के शब्द-शब्द इतने अभिव्यक्त हैं कि कविता का भाव-सम्प्रेषण द्विगुणित हो गया है
जवाब देंहटाएंमनुष्य जीवन में ओ ये मेहमान एक तरह से सबके होते हैं अलग-अलग रूप लेकर आते हैं. सुन्दर कविता.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
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