ख्वाब और ख़ामोशी
उजाले रोशनी से मिल,
धूप में घुल मिल जो गये.
बेहद नाजुक कुछ ख्वाब हमारे,
होश के आगोश में बेहोश हो गये.
भूख की फसल उगी ही थी अभी,
वो आ के जुबाँ पे चरस बो गये.
मौत भी इस कदर मिली हमसे,
कांपते कांपते खंजर भी रो गये.
आवाज़ निकली भी तो ऐसे,
ज्यों चीख के पाँव खो गये.
धड़कने थम गई जब हमारी,
हम साँसों के सहारे हो गये.
अंधियारे ओढ़ सियाही की चादर,
अमावस के चाँद हो गये.
सन्नाटे की सतह पर तब,
गुमनाम ख़ामोशी के लब खो गये.
बहुत भावपूर्ण रचना...
जवाब देंहटाएंआदरणीय रचनाजी, आपका ब्लॉग मुझे बहुत पसंद आया और मैनें join कर लिया अगर आप भी मेरा ब्लॉग www.wikismarter.com join करें तो मुझे अति प्रसन्नता होगी।
जवाब देंहटाएंआदरणीय रचनाजी, आपका ब्लॉग मुझे बहुत पसंद आया और मैनें join कर लिया अगर आप भी मेरा ब्लॉग www.wikismarter.com join करें तो मुझे अति प्रसन्नता होगी।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (25-05-2015) को "जरूरी कितना जरूरी और कितनी मजबूरी" {चर्चा - 1986} पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
धन्यबाद शास्त्री जी.
जवाब देंहटाएंउम्दा प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर विचार और शसक्त अभिव्यक्ति, अतीव सुन्दर
जवाब देंहटाएंप्रभावशाली प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंbejod abhiwyakti hai aapki..
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत खूब।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बहुत खूब आदरणीया
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंक्या बात है। बहुत ही सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंhttp://chlachitra.blogspot.in
http://cricketluverr.blogspot.in
बहुत ही उम्दा कविता
जवाब देंहटाएंगरीबी, भुखमरी और नशे की आदत ... जिंदगी बर्बाद होते देर कहाँ लगती है ...
जवाब देंहटाएंइमदा संवेदनशील रचना ...
लाजवाब
जवाब देंहटाएंमार्मिक रचना ....वाह
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