स्त्री
नम्रता, विनम्रता आभूषण है स्त्रिओं के
स्त्री हूँ, सो लोभ संवरण न कर सकी.
अपने से बड़ों ने बुरा किया
या सोचा मेरे लिए,
समझा आशीर्वाद,
रख लिया सर माथे पर.
छोटों ने कहा कुछ भी,
अबोध है, नासमझ हैं...
समझा लिया मन को.
कहते हैं पेड़ में फूल लगें,
तो झुक जाता है.
लगे फल
तो झुक कर दोहरा हो जाता है.
कितना झुकूँ ,
कितना झुकूँ ,
कितना झुकूँ ,
कई बार निकल जाती है
चीख भी हल्की सी,
और कितना झुकोगी,
बस भी करो अब
नहीं जानती रीढ़, बिना रीढ़
और दोहरी रीढ़ का मतलब,
फिर भी सोचती हूँ
बिना रीढ़ वालों से
दोहरी रीढ़ वाली मैं भली.
वास्तविकता बयां करती सुन्दर रचना १
जवाब देंहटाएंA गज़ल्नुमा कविता (न पति देव न पत्नी देवी )
बहुत सुंदर और भावपूर्ण
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर...झुकना दुर्बलता की नहीं सबलता की निशानी है पर झुकना भी तभी सार्थक है जब सामने वाले को भी झुकना सिखा दे..
जवाब देंहटाएंगलती मानने के लिए झुकना .....बड़प्पन की निशानी है |
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें|
लगभग हर भारतीय नारी की यही कहानी1 और इस जीवन को जैसे भी हो परिवार मे बन्ध कर ही चलना झ्रेय्स्कर है1
जवाब देंहटाएंबहुत हृदयस्पर्शी रचना है ये, मानो सबकुछ सामने ही घट रहा हो...
जवाब देंहटाएंनारी मन की सोच का सटीक चित्रण. बिलकुल सच कहा है कि बिना रीढ़ वालों से दोहरी रीढ़ वाली भली...शायद यही नारी जीवन है...बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंनारी मन के भाव जैसे स्वतः हो आ गए शब्दों का आकर ले कर ...
जवाब देंहटाएंनारी जीवन इसी को तो कहते हैं ...
बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति ..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर....
जवाब देंहटाएंसच है कई बार लगता है कितना झुकें ? हर नारी के जीवन की वास्तविकता है ये।
जवाब देंहटाएंमार्मिक चित्रण सुन्दर प्रस्तुति।