चारों तरफ फैला दुःख अवसाद और क्षोभ. रिश्तों पर ढ़ीली होती पकड़. अतीत के धूमिल होते पल क्षिन. वर्तमान में उन्हें एक बार फिर जी लेने की प्रबल उत्कंठा. कभी शब्दों के माध्यम से होती रचना की अभिव्यक्ति. कभी रचना के माध्यम से अभिव्यक्त होते कुछ शब्द.
रविवार, 15 जनवरी 2012
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गहन प्रश्न आरम्भ और अंत का ......शायद यही अंत हो ....!
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन और प्रशंसनीय.......
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।संक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाएं...
उघरे अंत ना होई निबाहू , कालनेमि जिमी रावन राहू .
जवाब देंहटाएंWah! Bahut khoob!
जवाब देंहटाएंधरती गोल तो है ही ।
जवाब देंहटाएंघूम कर वापस वहीँ पहुँच गए लगते हैं ।
वाह वाह वाह...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब...............
गहरी बात कह डाली आपने.
सादर.
हां हो सकता है यही अंत का प्रारम्भ हो
जवाब देंहटाएंसब बाहर था, सब अन्दर है...
जवाब देंहटाएं---सुन्दर पोस्ट व विचार....
जवाब देंहटाएं---निश्चय ही..आरम्भ में विष्फ़ोट के बाद..., आग , धुआं, तपन थे--- यह श्रिष्टि का आरम्भ था....
---अग्नि के पश्चात जब शमनक जल और वायु बने तब यह अशान्ति ...शान्ति में परिवर्तित हुई और जीवन का प्रारम्भ हुआ....
--- वर्णित प्रलयकाल( श्रिष्टि का अन्त ) की अन्तिम अवस्था में सब कुछ अग्नि में समा जाता है जो स्वयं ब्रह्म में लीन होजाती है...
---लेखक का यही मन्तव्य है ...
---हां वास्तव में, अन्त का आरन्भ, मानव की अति-सुख अभिलाषा से जनित अनाचार, अनैतिकता, अकर्मों से होता है जो शायद पहले ही प्रारम्भ हो चुका है....इसीलिये संसार में विष्फ़ोट,आग, धुआं, तपन और जलन है...
गहन सोच लिए .. सोच की प्रक्रिया को जगाते हुवे ...
जवाब देंहटाएंमकर संक्रांति ही शुभकामनायें ...
विचारणीय गहन प्रश्न,शायद आपका कहना सही है..बहुत सुंदर रचना अच्छी लगी.....
जवाब देंहटाएंnew post--काव्यान्जलि : हमदर्द.....
सुन्दर , बधाई .
जवाब देंहटाएंबहुत ही उत्तम रचना|मकरसंक्रांति की हार्दिक शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक कथन...शायद अंत की शुरुआत हो रही हो...
जवाब देंहटाएंअत्यधिक प्रशंसनीय रचना.....
जवाब देंहटाएंसंक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाएं...
vicharniy prashn...bahut khubsurati se aapne kavy mein dhala hai...
जवाब देंहटाएंक्या पता कल क्या हो....
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आपको !
विचारणीय प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंसृष्टी-निर्माण से सम्बद्ध कविता.वाह,क्या बात है,रचना जी.
जवाब देंहटाएंBahut khoob....ant mein sawaal sochne par majboor kar de raha hai....
जवाब देंहटाएंसही कह रही हैं, प्रायः आदि व अंत का गुणधर्म समान दर्शित होता है। सशक्त व सुंदर कविता।
जवाब देंहटाएंआरंभ, अंत और वर्तमान पर सटीक प्रश्न छोड़ा है आपने.
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सटीक प्रश्न …………हर अंत ही किसी नव निर्माण का आरम्भ होता है और हर आरम्भ का कहीं ना कहीं अंत और ये क्रम चलता रहता है अनवरत्………बेहतरीन भाव संयोजन्।
जवाब देंहटाएंआदि और अंत की समान परिस्थितियों पर पहली बार ध्यानाकर्षण के साथ एक ज्वलंत प्रश्न.बहुत खूब....
जवाब देंहटाएंकहीं ये फिर
जवाब देंहटाएंआरम्भ तो नहीं
किसी अंत का ?
सार्थक प्रश्न करती विचारणीय रचना .. सुन्दर अभिव्यक्ति
क्या तुलना की है आपने दो समरूप परिस्थितियों की !!!
जवाब देंहटाएंadbhut vichaar pravaah!
जवाब देंहटाएंbehtarin !!
जवाब देंहटाएंमनुष्य स्वयं को अपना नियन्ता समझता ज़रूर है,मगर उसकी यह समझ तभी तक रहती है,जब तक प्रकृति उसका अस्तित्व ही न हर ले!
जवाब देंहटाएंवर्तुल पूर्णता को प्राप्त होगा ही..
जवाब देंहटाएंहो सकता है....
जवाब देंहटाएंगहन भाव लिए ...बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंसच ..बिलकुल सच
जवाब देंहटाएंविस्फोट, आग, धुआं तपिश और जलन.
जवाब देंहटाएं..अंत की शुरुआत हो रही हो...सुन्दर अभिव्यक्ति
अच्छा निष्कर्ष निकाला है आपने.
जवाब देंहटाएंआपकी प्रस्तुति विचार करने को
प्रेरित करती है.
प्रभु की रचना,प्रभु ही जाने, रचना जी.
vah kya bat hai .....badhai rachana ji ....rachana behad prabhavshali lagi.
जवाब देंहटाएंआपके हर पोस्ट नवीन भावों से भरे रहते हैं । पोस्ट पर आना सार्थक हुआ। मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंआरम्भ और अंत :दोनों की मंजिल एक ...
जवाब देंहटाएंएक जहां से आरम्भ होता है
दूसरा वहाँ आ कर अंत होता है .......
betrinबेहतरीन...अंत और आरम्भ के बीच एक संघर्ष सा जान पड़ता हैं...
जवाब देंहटाएंबिलकुल सच कहा...
जवाब देंहटाएंसुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ लाजवाब रचना लिखा है आपने! बधाई!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन भाव
जवाब देंहटाएंye baat to chinta me daal gayi ? vichar kar rahi hun.....aur dar bhi rahi hun....
जवाब देंहटाएंbahut khoob gehri soch me daal diya...aur is se jyada sashakt prastuti kya hogi ?
गहन और शाश्वत प्रश्न उठाती कविता...
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