कुदरत से न डरने वाले घूम, रहे हैं शेर से
देखो आफत बरस रही है, अम्बर की मुंडेर से.
जो कुछ भी जोड़ा सबने था, खून पसीना पेर के
देखो कैसे गटक रहा जल अन्दर बाहर घेर के.
सब कुछ बदल गया पलभर में, नभ की एक टेर से
बस्तियां हैं निकल रहीं, देखो मलबों के ढ़ेर से.
जाने कितने पार हो गए, इस जीवन के फेर से
देखो दिया जवाब इन्द्र ने, सेर का सवा सेर से.
पूंछ रही है हम से प्रकृति, इक इक घाव उकेर के
देखो! जान गए न तुम अब, क्यों आया सावन देर से.
आप बहुत सुंदर लिखती हैं. भाव मन से उपजे मगर ये खूबसूरत बिम्ब सिर्फ आपके खजाने में ही हैं
जवाब देंहटाएंdil ko choo lene walo rachna...
जवाब देंहटाएंthanks Rachna ....didi
saavan kaliyug me kahar bhee dha sakta hai........
जवाब देंहटाएंdukh to tub hota hai jub dukhee peedit logo par aur chot padtee hai..........jinke upar chat nahee unke bare me soch kar hee dil dahal uthata hai.....
रचना जी गंभीरता जब सरल और सहज शब्दों में व्यक्त किया जाय तो आपकी जैसे कविता बनाती है... प्रकृति की मानव पर श्रेष्टता को आपने बहुत ही सहजता से व्यक्त किया है.. बधुत बढ़िया कविता
जवाब देंहटाएंक्यों आया सावन देर से.
जवाब देंहटाएंवाह !! कुदरत के निराले खेल को आपने बहुत सुन्दर अंदाज में पेश किया है ।
उधर यमुना बार बार उफन रही थी और सालों का रिकार्ड तोड़ रही थी, इधर दिल्ली से दूर बैठे हम रेवा/नर्मदा के तेवर देख कर मांग रहे थे कि ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’
इस बार सचमुच प्रकृति ने सारी कहावतें झुठला दीं।
बहुत अच्छी सच्ची रचना। चिंतनपरक। बधाई।
प्रकृति से खिलवाड़ करेंगे तो यही होगा ...सुन्दर रचना .
जवाब देंहटाएंकुदरत तो हमेशा सवा शेर ही रही है ।
जवाब देंहटाएंसावन के कहर को बखूबी प्रस्तुत किया है कविता में । बहुत सुन्दर ।
कृपया शेर की जगह सेर पढ़ें ।
जवाब देंहटाएंsunder lekhan kai liya badhai.
जवाब देंहटाएंkeep it up
Every poem of yours gives me a new insight... sometimes black n sometimes white... undoubtedly you are very bright... keep writing to show me da difference between wrong n right... Wish you loads of love n luck... :)
जवाब देंहटाएंक्या जबरदस्त रचना है मैम.. एक लताड़ भी है इसमें..
जवाब देंहटाएंजन्मदिन पर आपकी शुभकामनाओं ने मेरा हौसला भी बढाया और यकीं भी दिलाया कि मैं कुछ अच्छा कर सकता हूँ.. ऐसे ही स्नेह बनाये रखें..
पूंछ रही है हम से प्रकृति, इक इक घाव उकेर के
जवाब देंहटाएंदेखो! जान गए न तुम अब, क्यों आया सावन देर से.!!!
बहुत सुंदर गजल ,एकदम नये रूप में आई है !प्रकृति से छेड़ छाड़ की चेतावनी देते हुए !
बहुत बहुत बधाई !
इतना धोखा तो हर साल दे जाती है प्रकृति। बहुत सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंजो कुछ भी जोड़ा सबने था, खून पसीना पेर के
जवाब देंहटाएंदेखो कैसे गटक रहा जल अन्दर बाहर घेर के.
रचना जी कविता एक सामयिक घटना को भी आवाज़ दे रहा है कि प्राकृतिक आपदा क्या चीज़ है..सुंदर भाव...बढ़िया प्रस्तुति के लिए बधाई
थोडा सा वज़न गडबड़ा रहा है बाकी ठीक है ।
जवाब देंहटाएंआनंद आ गया आज तो हार्दिक शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंआज हर तरफ बाढ का जो मंजर है उस पर बहुत ही उमदा रचना है। लाजवाब। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंaapki rachna beshkiimti hai kya talkh haqiqat ko aapne shabdon mein piroya hai or vo bhi itne khoobsurat shabdon ke sath ki man moh liya ..javab nahi laajavab
जवाब देंहटाएंismein savan ka kya dosh ...nadii ki god mein ghar banayenge to yahii hogaa hi .
khelo khoob prakriti se ek din sab hisaab barabar kar degii................
ADARNIYA RACHNA DIDI
जवाब देंहटाएंBAHUT PASAND AAI ISILIYE DOBARA PADHNE CHALA AAYA
"क्यों आया सावन देर से." एक सवाल जो स्वयं ही जवाब बनकर सामने आता है. रचना जी अत्यंत संवेदनशील रचना.प्रकृति की विशालता और मानव का बौनापन बिलकुल उजागर करती है आपकी कविता.
जवाब देंहटाएंखूनपसीना बहा कर जो कुछ जोड पाये थे सैलाव में सब वह गया यही कुदरत के खेल हैं ।देर फेर सेर उकेर ढेर घेर टेर मुडेर और शेर शव्दों का चयन बहुत की अच्छा बन गया हौ और कविता के लिये जरुरी भी है
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लिखा है..
जवाब देंहटाएंकुदरत का तो कोई मुकाबला नहीं...
माना इस बार बहुत त्राहि मची है....मगर बरसों से प्यासी ज़मीं को इतना तो चाहिए ही था...
पूंछ रही है हम से प्रकृति, इक इक घाव उकेर के
जवाब देंहटाएंदेखो! जान गए न तुम अब, क्यों आया सावन देर से.
सच में प्रकृति से खिलवाड़ करना मानव के लिए बहुत महंगा सौदा है ..पर्यावरण के प्रति सजग रहने में ही सबका भला..
बहुत सुन्दर सन्देश देते रचना ..
कहीं यह इंद्र का बयान तो नहीं लिख डाला आपने...रोज़ जमुना के ऊपर सफर करते भय होता था..आज कुछ राहत मिली... आपकी कविता तो जम के बरसी है!!
जवाब देंहटाएंbahut hi sundar rachna...
जवाब देंहटाएंmaza aa gaya padhkar....
yun hi likhte rahein...
खिलवाड़ कुछ लोगो ने किये...
जवाब देंहटाएंभुगता किसी और ने..
दिल रोया किसी और का..
जब बादल बरसा जोर से...
बहुत सुंदर रचना लिखी. मार्मिक अभिव्यक्ति.
haal hami behaal kar rahe hai aur kya kahe ?rachna bahut hi khoobsurat hai .
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना जो प्रकृति की असुन्तलित अनियमितता को बेहतरी से दर्शा रही है! कुछ इसे ग्लोबल वर्मिंग कहते है तो कुछ दैवीय....
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंयहाँ भी पधारें:-
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तभी तो कहते हैं प्रकृति से छेड़ छाड़ नही करनी चाहिए ... सुंदर रचना है .....
जवाब देंहटाएंकितने सुन्दर शब्द दिए हैं, मन के भावों को
जवाब देंहटाएंपूंछ रही है हम से प्रकृति, इक इक घाव उकेर के
देखो! जान गए न तुम अब, क्यों आया सावन देर से.!!!
कितनी कुशलता से आपने जता दिया है...कि प्रकृति भी अपने रंग दिखा देती है...अगर उसे for granted लिया जाए.
बढ़िया कविता
excellent post.
जवाब देंहटाएंi liked it.
(अगर हम प्रकृति से छेड़छाड़ ना करते तो हमें ये दिन ना देखने पड़ते.
अभी भी वक़्त हैं--संभल जाइए वरना प्रकृति ने तो अभी सिर्फ ट्रेलर ही दिखाया हैं, फिल्म देखने से बचना हैं तो प्रकृति की कद्र कीजिये.)
धन्यवाद.
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आज के इंसान की प्रवृति
जवाब देंहटाएंऔर प्रकृति के नियमों का
तुलनात्मक अध्ययन उजागर हो रहा है
आपकी इस संग्रहनीय रचना से ....
अभिवादन .
bahut hi sundar avam saral shabdo me aapke man ki komal bhanaye ukar aai hai.ati uttam sandesh deti aapki rachna.
जवाब देंहटाएंpoonam
बहुत सुन्दर और शानदार रचना लिखा है आपने! उम्दा प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएंBahut Khoob
जवाब देंहटाएंरचना जी प्रकृति प्रदत्त बहुत अच्छी नज़्म कही है आपने ....!!
जवाब देंहटाएंसहज सरल शब्दों में विचारणीय प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंप्रकृति की श्रेष्ठता सिद्ध करती आपकी रचना सुन्दर है.....
शुभकामनाएं...
रचना माँ,
जवाब देंहटाएंनमस्ते!
काश मैं आपके ब्लॉग पर 2004 में आया होता! क्यूंकि तब मैं दिमाग का इस्तेमाल करता था! अब तो ज़ंग लग गया है!
वैसे ये वाली रचना थोड़ी बहुत समझ भी गया हूँ!
सादर,
आशीष