रविवार, 30 जनवरी 2011

मंजिलें


मंजिलें
 

कैद हैं आज भी वो मंज़र इन नज़ारों में,
जब हम भी गिने जाते थे प्यारों में.  
 
हँसते हंसाते खिलखिलाते याद आते थे,
कभी हम भी सबको  बहारों में.
 
अपने कांधों पे उठाये अपनी ही  टहनियां, 
खड़े हैं कितने ही दरख़्त कतारों में.
 
उड़ती है धूल, ओढ़ लेते हैं धूल की चादर,
फिर भी खड़े हैं वो आज तलक राहों में.
 
आ गया पतझड़, रूकती नहीं धूप तक उनसे,
शुमार  हो गए  वो भी, मेरी तरह बेचारों में. 
  
रूठ जाती है, अब तो मंजिलें भी हमसे,
शिकवे भी करती हैं हमसे इशारों में
 
सिखा मुझको  मर के  जीने का हुनर, ऐ दरख़्त!
डरती हूँ, गिनी जाने से मैं बेसहारो में. 
 
मरते हैं यहाँ लोग रोज, न जाने कितने,
मर के भी जीता है कोई एक हजारों में.
 
यूँ तो जिगर छलनी, कई बार हुआ मेरा,
शामिल नहीं हूँ फिर भी  अश्कबारों में.  
 
यहाँ दूर तलक कोई अपना नहीं मिलता यारों,
आओ लौट चलें, बसें फिर एक बार तारों में.

रविवार, 23 जनवरी 2011

शून्य

शून्य



जब भी उलझती हूँ,
अंतर्मन की गांठों से.
याद आते हैं आर्य भट्ट,
शून्य के जनेता, प्रणेता
उनका गणित.
और शून्य से उलझा जीवन.
जीवन का आरम्भ शून्य अंत शून्य.
अकेला शून्य.
अपनों की भीड़ में भी शून्य.
कभी घटता, कभी बढ़ता,
विभाजित होता, हासिल होता.
पर अंततः होता है शून्य.
शून्य की धुरी है जीवन !
या जीवन की धुरी शून्य...
....दोनों एक दूसरे के पर्याय.
जानते हैं दोनों
सबको स्थान देना.
अपने पहले या बाद
अपने मूल्य के घटने बढ़ने से वेपरवाह.
सबके साथ समभाव से चले चलना.
शून्य पे सवार हो शून्य से,
निरपेक्ष शून्य में विलीन होना...

रविवार, 16 जनवरी 2011

खबर

 खबर


आसमान में आज परिंदों की खूब आवा-जाई है
वहां पे उन्होंने खूब खलबली मचाई है.
सूरज, चाँद, तारे, आसमान, बदली, जिसको देखो
सबके चेहरे पे उड़ती दिखी हवाई हैं.

जाने कैसे हैं ये परिंदे देखो,
कैसी कैसी बातें यहाँ वहां उड़ाई हैं.
"कल सूरज को बदली खा जाएगी".
बदली खूब खिल खिल के खिलखिलाई है.

"आज ये बादल फटेगा यहीं कहीं"
बादल के माथे पे लकीरें छ्नछ्नाई हैं.
"आज प्यार में वो आसमान के तारे तोड़ लायेगा"
तारों ने जान बचाने को होड़ लगाई है.

"चाँद पे अब इंसान घर बनाएगा"
चाँद ने कर ली अपने सर की धुनाई है.
"वो बचाने को जान अपनी धरती आसमान एक करेगा"
धरती आसमान की आपस में ठनठनाई है.

"राज़ खुला तो आसमान टूट पड़ेगा"
आसमान ने शुरू कर दी छुपन छुपाई है.
चाहती हूँ, कह दूँ, गलती से सही,
ये मुसीबत मेरी ही कराई धराई है.

आ गए प्रधान सम्पादक तभी, बोले,
हमने सबसे ऊँची छलांग लगाई है.
अंबर तक खब............रें
सिर्फ प्रिंट मीडिया ने पहुंचाई हैं.

सोचती हूँ, बता दूँ, सच सबको,
कल जब से अखबार की पतंगें बना
आसमान में ऊँची उड़ाई हैं.
पढ़-पढ़ कर परिंदों ने इक इक खबर,

पूरे आकाश में सुनाई हैं.
तभी से
सूरज, चाँद, तारे, आसमान, बदली, जिसको देखो,
सबके चेहरे पे उड़ती दिखी हवाई हैं.


रविवार, 9 जनवरी 2011

धागे

धागे




बाखबर से बेखबर होती रही,

समय की गठरी पलटती रही.

रातों को उठकर जाने क्यों,

मैं अपनी ही चादर सीती रही.

संस्कारों की कतरनें जोड़ी बहुत थीं,

फिर भी सीवन दिखती रही.

अपनों की झालर बनाई सही थी,

जाने किसमें तुरपती रही.

बातें चुन्नटों में बांधी बहुत थीं,

न जाने कैसे निकलती रहीं.

ख़ुशी औ ग़म के सलमे सितारों में,

मैं ही जब तब टंकती रही.

मिलाना चाहा रिश्तों को जब भी,

अपनी ही बखिया उधडती रही,

बेखबर से बाखबर होना जो चाहा,

रातों में समय को पिरोती रही.

हाथों को मैंने बचाया बहुत,

पर अंगुश्तानो से सिसकी निकलती रही.

सुराखों से छलनी हुई इस तरह,

आँखों में सुई सी चुभती रही.

जितना भी चाहा बाहर निकलना,

धागों में उतना उलझती रही.

मंगलवार, 4 जनवरी 2011

धूप का दर्द

धूप का दर्द


अब तो धूप के भी पांव जलने लगे हैं
अपनी ही तपिश से.
न सहारा न छाँव
कभी यहाँ पेड़ हुआ करते थे.
उनकी टहनियों पर बैठ
सुस्ता लेती थी धूप.
कभी पत्तियों के साथ
आंख मिचोली
कभी पक्षियों संग
छुपन-छुपाई.

अब तो धूप के भी पांव सुलगने लगे हैं
अपनी ही तपिश से.
कंक्रीट के घने ऊँचे जंगल.
सुलगती छतें.
मीलों फैले रेगिस्तान
उस पर रूठी बयार.
पानी को तरसती
धरती की छाती.

अब धूप के पांव में फफोले पड़ने लगे हैं
अपनी ही तपिश से.
सुबह से शाम तक सिर्फ चलना
मीलों मीलों और मीलों.
एक घर से दूसरा
एक गली से दूसरी.
शाम होते होते
बेहाल बेदम बेहोश हो कर
लड़खड़ा कर गिर पड़ती है धूप.
और सारी रात
चांदनी का मलहम लगा कर
किसी कोने में पड़ी
करवटें बदलती कराहती सुबकती है धूप.
फिर अनमने से करती है
अगले दिन का इंतजार.

अब धूप के पांव के घाव बढ़ने लगे हैं
अपनी ही तपिश से.
सोचती है धूप, कि कह दूं
अपने दिल की बात.
कब लगेंगे पेड़
कब फूटेंगी कोपलें.
कब खेलूंगी
धूप छावं का खेल.
कब आँगन में किसी बच्चे की
बन के छाया
अठखेलियाँ करूंगी.
कब आएगा बादल
कब बरसेगी बदली.
कब दिन भर अपने घर बैठ
चिंतन करूंगी.
आगे बढ़ने की  दौड़ में
ऐ दुष्ट प्राणी
तूने क्या खोया क्या पाया
पैसा कमाने की होड़ में
भूल गया मुझ दुखयारी को
थक गयी हूँ मैं.
मुझे विश्राम चाहिए
मुझे कुछ पेड़ चाहिए.
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