रविवार, 1 नवंबर 2015

मासूम चाँद भी

मासूम चाँद भी

यूँ ही एक दिन
पूंछा था चाँद से
क्यों घटते बढ़ते हो
क्यों रहते नहीं एक से
सूरज की तरह.
इधर उधर देखा
मायूसी  को
भरसक छुपाया
बोला एक दीपावली की रात
देखने को
धरती की जगमगाहट
आँखों में भर लाने को
राम को शीश नवाने को
अनवरत प्रयत्नरत हूँ
सदियों से
कभी घटता 
कभी बढ़ता
कभी दीखता 
कभी छुपता
किसी भी तरह
किसी भी तरह
अमावस की
एक झलक पाने को ……
ये जुगाड़ की जिंदगी
हम ही नहीं जीते
ये चाँद भी जीता है  

14 टिप्‍पणियां:

  1. तब तो यह जुगाड़ की नहीं प्यार की बाढ़ की जिन्दगी हुई..

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  2. धन्यवाद यशोदा जी मेरी रचना को स्थान देने हेतु.

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  3. चाँद की चुप सी पीड़ा का मार्मिक चित्रण

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  4. इसी घटने बढ़ने में जिंदगी का रस है। सूरज जिंदगी देता है। चाँद जिंदगी जीता है। :)

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  5. चाँद की अंतस की पीड़ा को बहुत ख़ूबसूरत शब्द दिए हैं...बहुत भावपूर्ण रचना

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  6. बहुत सुन्दर, भावपूर्ण रचना। अच्‍छी रचना प्रस्‍तुत करने के लिए आभार।

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  7. वाकई सही है , मंगलकामनाएं आपको !

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