मासूम चाँद भी
यूँ ही एक दिन
पूंछा था चाँद से
क्यों घटते बढ़ते हो
क्यों रहते नहीं एक से
सूरज की तरह.
इधर उधर देखा
मायूसी को
भरसक छुपाया
बोला एक दीपावली की रात
देखने को
धरती की जगमगाहट
आँखों में भर लाने को
राम को शीश नवाने को
अनवरत प्रयत्नरत हूँ
सदियों से
कभी घटता
कभी बढ़ता
कभी दीखता
कभी छुपता
किसी भी तरह
किसी भी तरह
अमावस की
एक झलक पाने को ……
ये जुगाड़ की जिंदगी
हम ही नहीं जीते
ये चाँद भी जीता है
वाह - क्या बात
जवाब देंहटाएंतब तो यह जुगाड़ की नहीं प्यार की बाढ़ की जिन्दगी हुई..
जवाब देंहटाएंधन्यवाद यशोदा जी मेरी रचना को स्थान देने हेतु.
जवाब देंहटाएंअति उत्तम प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंचाँद की चुप सी पीड़ा का मार्मिक चित्रण
जवाब देंहटाएंइसी घटने बढ़ने में जिंदगी का रस है। सूरज जिंदगी देता है। चाँद जिंदगी जीता है। :)
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर, भावपूर्ण रचना
जवाब देंहटाएंBahut sundar !
जवाब देंहटाएंचाँद की अंतस की पीड़ा को बहुत ख़ूबसूरत शब्द दिए हैं...बहुत भावपूर्ण रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर, भावपूर्ण रचना। अच्छी रचना प्रस्तुत करने के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंसुन्दर भावाभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसुन्दर भावाभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंवाकई सही है , मंगलकामनाएं आपको !
जवाब देंहटाएंI am Happy by reading this..
जवाब देंहटाएंCurrent GK