रविवार, 13 सितंबर 2015

पतन

पतन

सुना है गिरना बुरा है 
देखती हूँ  आसपास 
कहीं न कहीं,
कुछ न कुछ 
गिरता है हर रोज़.
कभी साख गिरना 
कभी इंसान का गिरना 
इंसानियत का गिरना
मूल्यों का गिरना   
स्तर गिरना 
कभी गिरी हुई मानसिकता
गिरी हुई प्रवृत्तियां.   
अपराध का स्तर गिरना 
नज़रों से गिरना 
और कभी 
रुपये का गिरना 
सोने का गिरना 
बाज़ार का गिरना 
सेंसेक्स गिरना 
और यहाँ तक 
कि कभी तो 
सरकार का गिरना
समझ नहीं पाती 
ये इनकी चरित्रहीनता है 
या 
गुरुत्वाकर्षण.

18 टिप्‍पणियां:

  1. धन्यवाद दिग्विजय जी मेरी कविता को पांच लिंकों का आनन्द में स्थान देने के लिए

    जवाब देंहटाएं
  2. धन्यवाद दिग्विजय जी मेरी कविता को पांच लिंकों का आनन्द में स्थान देने के लिए

    जवाब देंहटाएं
  3. उत्तर
    1. ज्योति जी आपकी इस टिप्पणी और मेरे ब्लॉग में शामिल होने के लिए बहुत बहुत धन्यबाद.

      हटाएं
  4. धन्यबाद शास्त्री जी मेरी रचना को चर्चामंच में स्थान देने के लिए.

    जवाब देंहटाएं
  5. ग्रुत्वकर्षण तो एक बहाना लगता है ... इन सब चीजों के साथ मानवता भी गिर रही है ...
    मजा आया आपके इस अंदाज पे ...

    जवाब देंहटाएं
  6. बेहद सटीक और लाजबाब रचना ।

    जवाब देंहटाएं
  7. कविता की प्रत्येक पंक्ति में अत्यंत सुंदर भाव हैं.... संवेदनाओं से भरी बहुत सुन्दर कविता...

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  8. ये पतन उलझाता भी है और बहुत कुछ समझाता भी है . सुन्दर रचना ,रचना जी .

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  9. बहुत सटीक प्रश्न...प्रभावी अभिव्यक्ति...

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