कुछ तो
खोल दूं बचपन की कॉपियां और निकाल दूं
सब कुछ जो छुपाती रही
समय और समय की नजाकत के डर से
निकालूँ वह इंद्रधनुष और निहारूं उसे
जो निकलता था
मेरे बचपन की बारिशों में
तब जब मैं बनाती थी पापा के लिए भांग के पकौड़े
मां के न होने पर या होते हुए भी न होने पर
निकालूं नानी की दी वो नन्ही बिंदिया
उन्हें छू कर महसूस करूं, सजा लूं माथे पर
जो पाबंदियों के कारण कभी सज न सकीं
निकालूं नेल पॉलिश लगाने को मेरी नन्ही उंगलियां
जो मचलती रही पूरे बचपन रंग भरने को
रंग दूं उन्हें तितलियों के रंग में और तितली हो जाऊं
निकालूं बचपन की अधूरी नींदें
सो जाऊं कहीं दुबक कर
जो कभी मेरे हिस्से न आयी
तब जब बनाती थी पापा के लिए खाना
कहीं उन्हें देर ना हो जाए
निकालूं चढ़ी त्योरियों के डर से
दबी छुपी वह हंसी वो खिलखिलाहट
हंसूं दिखाऊँ दसों दिशाओं को
कि मैं भी हंस सकती हूं
निकालूं वो पलक पांवड़े
बिछा दूं मात्र अपने लिए
जो बिछाए सदा मैंने सबके लिए
निकालूं बचपन में लिखी कविताएं मेरी
जहां छुपे हैं कुछ दर्द और पीड़ाएं मेरी
जो तूफान की आशंकाओं के कारण
कभी बाहर में ना आ सके
निकालूं वह मसोसा मन
वह रूपसी नवयौवना सी स्वचित्रित अपनी ही तस्वीर
तब जब सखी सहेलियां व्यस्त थीं यौवन की खुमारीं में
और मैं घर के कामों में
निकालूं वह क्लास के लड़कों की बातें
जो रखी थी छुपा कर
मौका देख कर पड़ोस वाली भाभी से कहने को
हाथ हैं कि थक गए हैं पन्ने पलटते पलटते
पर नहीं तैयार है
पन्नों में कैद बचपन लड़कपन खत्म होने को
सोचती हूं आजाद कर दूं
अपनी कॉपियों में बंद
उस बचपन और तमाम तितलियों को
उड़ लेने दूं
जी लेने दूं उन्हें भी खुली हवा में
आखिरकार उन्हें भी हक है
अब आजाद होने का
एक आकाश होने का
आपकी लिखी रचना सोमवार 31 अक्टूबर 2022 को
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
सुन्दर श्रजन
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(३१-१०-२०२२ ) को 'मुझे नहीं बनना आदमी'(चर्चा अंक-४५९७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार🙏
हटाएंबहुत प्यारी मासूम सी हसरत.. वाह
जवाब देंहटाएंदीदी बहुत आभार आपका 🙏
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 01 नवम्बर 2022 को साझा की गयी है....
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बचपन को आजाद करने का ख्याल इस खूबसूरती के साथ रचना के रूप में सजकर आएगा सोचा ना था...वाह अद्भुत रचना
जवाब देंहटाएंआपकी प्रतिक्रिया अमूल्य है मेरे लिए🙏
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज सोमवार(३१-१०-२०२२ ) को 'मुझे नहीं बनना आदमी'(चर्चा अंक-४५९७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बचपन में यदि यह सब हो गया होता तो शायद याद भी न रहता, जो कह दिया गया वह भूल जाता है और जो चाह कर भी कह न पाए कोई वह दिल में मोती की तरह बस जाता है, सुंदर रचना !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर मासूम सी ख्वाइश जताती रचना
जवाब देंहटाएं🙏🙏💐💐
हटाएंआदरणीय दीदी
जवाब देंहटाएंकृपया स्पेम चेक करिए
ढेर सारी प्रतिक्रियाएं दिखेंगी
सादर
बहुत खूबसूरत रचना ्
जवाब देंहटाएंआभार आपका 🙏🙏
हटाएंये कुछ तो बेहद खास है।
जवाब देंहटाएंइसीलिए तो उकेरना पड़ा💐💐
हटाएंबहुत प्यारी, अलग सी कविता । मन की डायरी जैसी । स्वागत है ।
जवाब देंहटाएंइसे डायरी का पन्ना ही समझें
हटाएंआभार आपका 🙏
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण अभिव्यक्ति प्रिय रचना जी।इन्सान की अनेक ख्वाहिशें भीतर ही पड़ी रह जाती हैं।
जवाब देंहटाएंजी तभी तो कागज पर उकेर दी 🙏🙏
हटाएंमन की मजबूरी कि अभिव्यक्ति की मानव-सुलभ तृष्णा नहीं जाती.
जवाब देंहटाएंदीदी आभार आपका 🙏
हटाएंहृदय स्पर्शी रचना, अतृप्त आकांक्षाओं को शब्द देना भी कठिन है पर आपने बहुत सुंदरता से इन्हें रच दिया।
जवाब देंहटाएंअभिनव सृजन।
हृदय तल से आभार 🙏🙏
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