सुबहो शाम इस धूप को बदलते देखा है
इसी धूप में सायों को छोटा और बड़ा होते देखा है
एक ही दिन में कितने मिजाज़ बदलते देखा है
कभी साए को हमसफ़र के साथ तो कभी
हमसफ़र को साए से लिपटते देखा है
सब तो कहते हैं की बुरे वक्त में
साए को साथ छोड़ते देखा है
हमने तो बुरे वक्त में सिर्फ साया ही देखा है
हमने तो बुरे वक्त में सिर्फ साया ही देखा है
लोग तो रिश्तों के टूटने की बात करते हैं
हमने तो टूटते रिश्तों का ग़म भी देखा है
सुबहो शाम इस धूप को बदलते देखा है
भावों को और
जवाब देंहटाएंमंजी भाषा देने की
जरूरत है ...
rishton ke baare mein ek bahut achchhi rachna hai ye
जवाब देंहटाएंमैने एक नये रचना कार को ब्लोग पर उभरते देखा है। बहुत बहुत शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंरचना जी, आपकी कविताओं में निखार आता जा रहा है। बधाई।
जवाब देंहटाएंभाव प्रधानता आपकी रचनाओं की विशेषता है. शिल्प तथा प्रवाह क्रमशः सध रहा है.
जवाब देंहटाएंपहली बार आ पाया हूँ आपके ब्लॉग पर. पूर्णतः सहमत हूँ आपके विचारों से.
जवाब देंहटाएंrachna ji aapko namaskar
आपके लेखन ने इसे जानदार और शानदार बना दिया है....
जवाब देंहटाएं