शनिवार, 19 दिसंबर 2009

पुनर्जन्म

पुनर्जन्म




मेरे सपनों के शव

जब पड़े थे बिखरे

आँखों में था रुदन

 और हर तरफ क्रन्दन

निराशा के गिद्ध नोंच रहे थे

उनका बदन

इक आशा की डोर

जो कहीं जुड़ी थी सांसों से

बोली वो और फिर टूट गयी

"यही नियति है सपनों की और जीवन की

अब शवदाह  करो" 

देख रही थीं आंखे

शवदाह में भी इक नया सपन

इन सपनों से शायद

कोई इक सपना जी जाए

आघात लगा

फिर टूट गया आँखों में कुछ

मुखाग्नि देने चली

समेटे अंजुरी में सपन

जाने कैसे चोट लगी

बिखर गये शव के सब कण

अब सोच रही

वैधव्य तुम्हारा ओढ़

कहीं छुप जाऊं मैं

यदि तुम पुनर्जनम ले

बस जाओ, सदा सदा को

मेरे किसी

प्रिय जन की आँखों में

25 टिप्‍पणियां:

  1. इन सपनों से शायद
    कोई इक सपना जी जाए ...

    Behad gamheer rachna...sochne par vivash kartii huii rachna...
    aapko badhaayee.

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  2. बस जाओ, सदा सदा को
    मेरे किसी
    प्रिय जन की आँखों में

    इन पंक्तियों में आशा की किरणे नज़र आती हैं।
    अच्छा प्रयास।

    जवाब देंहटाएं
  3. bahut hridaysparshi rachna.

    iske saath mere blog par aane , comments karne ke liye hardik dhanyawaad, aapko meri rachnayen pasand aain, mera prayas safal hua. dhanyawaad.

    जवाब देंहटाएं
  4. bahut hi maarmik rachna padhkar jise man saham sa gaya ,ati sundar likha hai aapne

    जवाब देंहटाएं
  5. ऐसी इच्छा की तो कल्पना ही नहीं की थी!!! सुन्दर, मार्मिक.

    जवाब देंहटाएं
  6. ऐसी इच्छा की तो कल्पना ही नहीं की थी!!! सुन्दर, मार्मिक.

    जवाब देंहटाएं
  7. अब सोच रही
    वैधव्य तुम्हारा ओढ़
    कहीं छुप जाऊं मैं
    यदि तुम पुनर्जनम ले
    बस जाओ, सदा सदा को
    मेरे किसी
    प्रिय जन की आँखों में ...

    निराशा और फिर आशा ........ दोनो का ही समावेश है इस रचना में ........ बहुत लाजवाब .......

    जवाब देंहटाएं
  8. व्यथित मन और टूटे सपने की सुन्दर आवाज निकली है....

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  9. आपका लिखा पढ़ा बहुत अच्छा गहरा लिखती है आप बढ़िया बहुत पसंद आई आपकी रचनाएं शुक्रिया

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  10. मन की व्यथा और पीड़ा को चित्रित करती हुई
    maarmik रचना ...
    एक संजीदा तस्वीर-सी खिंच
    जाती है पढ़ते-पढ़ते ....
    भाषा और कथ्य के लिहाज़ से
    की गयी मेहनत ...
    झलकती है .
    आशा का दामन थामे रहना
    अच्छे संकेत दे रहे हैं .

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  11. इक आशा की डोर
    जो कहीं जुड़ी थी सांसों से
    बोली वो और फिर टूट गयी
    "यही नियति है सपनों की और जीवन की....
    रचना जी ! कभी कभी पतवार छोड़ कर धारा में कूद जाती हैं क्या ! बहुत ही गहरे भाव हैं आशा निराशा की मनहस्थिति का साहित्यिक और दार्शनिक चित्रण है ! आगे बढती रहें !

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  12. पुनर्जन्म लेकर किसी प्रियजन की आँखों में क्यों बसें!
    मेरे सपनों के शव
    जब पड़े थे बिखरे
    आँखों में था रुदन
    -यह तो ठीक, लेकिन पुनर्जन्म हों तो फिर मेरी ही आँखों में बसें!
    मैं स्वप्न पालना क्यों छोड़ दूँ !
    सपनों के शवदाह करता रहूँ..
    नए स्वप्न पालता रहूँ।
    --कविता में इतनी निराशा मुझे अच्छी नहीं लगी।
    यह मेरा मानना है, मैं गलत भी हो सकता हूँ।

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  13. देवेन्द्र जी आपकी प्रतिक्रिया मेरे अपने स्वार्थ के निहित बहुत अच्छी लगी. क्योंकि ये तो तय है की कविता आपने ध्यान से पढ़ी और प्रतिक्रिया दी जिसकी मैं आभारी हूँ. रही बात आशा और निराशा की . तो मेरी इस निराशा में भी एक आशा है. अपने प्रिय जनों को सुखी देखने की आशा, अपने प्रिय जनों के सुख में अपना सुख ढूढने की आशा. अगर कोई सुख हमसे दूर है तो हम ये कामना तो कर ही सकते हैं की अगर मैं नहीं तो कोई मेरा प्रिय जन ही सही जो कुछ खुशियाँ पा ले (न की अगर मैं नहीं तो कोई नहीं )

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  14. बस जाओ, सदा सदा को
    मेरे किसी
    प्रिय जन की आँखों में


    -बहुत उम्दा!!

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  15. बहुत मार्मिक रचना.....सपनों का शव....और उनका शवदाह...गज़ब की सोच है.

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  16. नववर्ष की मंगलमय कामनाये !

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  17. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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