रविवार, 30 अगस्त 2015

हाथ का मैल

हाथ का मैल
बचपन से सुनती आई हूँ 
आप सब की ही तरह  
पैसा ही जीवन है. 
पैसा आना जाना है.
पैसा हाथ का मैल है. 
समय के साथ 
बदलती परिभाषाओं ने
इसे भी अछूता नहीं छोड़ा 
बदल गई है 
इसकी किस्मत,
कीमत और तबियत
हमारें संस्कारों में
उच्चतम स्थान प्राप्त
व पाप धोने का साधन
गंगा हो गया है ये.
कितना अपमानित
महसूस कर रही होगी
माँ गंगा.
पैसे से अपनी तुलना
और पुल्लिंग सम्बोधन ...
पर ये सच है
पैसा पाप धोता है.
पाप धोने वाले 
या पाप धुलवाने वाले 
दोनों के हाथों को
सुगन्धित करता है.
बाजार में उपलब्ध
साधनों संसाधनों
में सर्वश्रेष्ठ है.
असरकारक है.
पैसा एक बेहतरीन,
सुगन्धित हैण्ड वाश है.

रविवार, 23 अगस्त 2015

दुआएं

दुआएं
कल के 
उस त्यौहार में 
पाप धोने के 
उस प्रयास में 
इंसान ही नहीं 
जानवरों ने भी दी दुआएं
वो रुपहली प्लेटे,
प्लास्टिक की 
डिज़ाइनर कटोरियाँ,
जरूर जानती हैं 
कोई वशीकरण मंत्र
खींचती हैं सबको अपनी ओर 
कुत्तों ने सूंघा, चाटा, खाया 
कुछ ने ढूंढी हड्डियां. 
इतना सब कुछ 
सब तरफ देख
होश खो बैंठीं गाय
बतियाती हुईं आयीं
लो हो गई आज की
किटी पार्टी पूरी
फिर क्या था 
क्या प्लेट
क्या कटोरी 
वाह...वो रंग बिरंगे
पालीथीन   
लाल, हरे, नीले, पीले, बैंगनी 
मिनटों में चट
मानों सफाई कर्मचारियों का दल था 
नहीं जानती 
कहाँ सहेजेंगे ये लोग 
इतनी दुआओं को.

रविवार, 16 अगस्त 2015

अतिथि

अतिथि
कुछ समय से
घर भर गया है
मेहमानों से.
घर ही नहीं 
शरीर, मन, मस्तिष्क
चेतन, अवचेतन.
ये मात्र मेहमान नहीं
मेहमानों का कुनबा है.
सोचती हूँ
मन दृढ करती हूँ 
आज पूंछ ही लूँ 
अतिथि
तुम कब जाओगे
पर संस्कार रोक लेते है.
ये आते जाते रहते है 
पर क्या मजाल
कि पूरा कुनबा
एक साथ चला जाये
शायद उन्हें डर है 
उनकी अनुपस्थिति में 
वो धरोहर जो मुझे सौंपी गई,  
वो किसी और के 
नाम न लिख दी जाय.
हाँ! चिंता, दुःख,
इर्ष्या, डर और 
इनकी भावनाएं 
मेरे मस्तिष्क में
स्थायी निवास कर रही हैं.

(चित्र गूगल से साभार)

रविवार, 9 अगस्त 2015

सावन

सावन
सब कुछ साफ,
धुला, उजला,
हरा, चमकदार
निरंतर गति प्रवाह,
कर्णप्रिय ध्वनि संगीत
सब कुछ
लगता है अच्छा  
अखरता है
तो ठहराव,
जल भराव,
कीचड़, सडांध   
नमी, दरारें
उनमें उगते
जंगली घास फूस
काई, बिछलन, फिसलन.
वर्ष में कुछ निश्चित समय के लिए
अच्छा लग भी जाए ये,
पर मन के भीतर
रहता ये सावन जब तब.
करता है अवरुद्ध
भीतर के नाले नालियां,
तालाब, नदियाँ
फिर सैलाब की तरह
आता है ये सावन
कुछ भी नहीं दिखता हरा
हर तरफ मात्र श्वेत श्याम
भला ये भी कोई सावन हुआ
श्वेत श्याम.

(चित्र गूगल से साभार)

रविवार, 2 अगस्त 2015

सरगोशी

सरगोशी

बारिश में भीगी 
गीली सीली 
सराबोर धूप ने 
कल मेरी 
सांकल बजाई. 
राहत की साँस ली,
चलो कहीं कोई तो है.
हताश थी,
कितना हठी,
और बेपरवाह 
है सूरज. 
जब भी आता है, 
धूप के बिना
नहीं आता.
सूरज और धूप 
ज्यों धूप और साया 
हो गये.
आ जाओ,
कभी बदली का 
आंचल भी थाम लो
कभी उसके पीछे भी 
छुप जाओ 
कभी तो छोड़ दो 
धूप को अकेला 
मैं इतना सिर्फ 
इसलिए कह रही हूँ 
सबको तपिश देने वाले 
कभी तो जानो 
किसी के न होने का अर्थ.  
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