रविवार, 14 जून 2015

वजूद

वजूद

कल उतारी थी 
गठरी ताक से.
झोंके थे उसमें से कुछ 
तुड़े-मुड़े,गीले-सीले
अपने वजूद को तलाशते. 
कुछ वर्ण, अक्षर और शब्द 
समय के साथ खो चुके 
अपनी गरिमा, अपना अर्थ, 
रंग रूप यौवन नैन नक्श
अपना होना ना होना 
नहीं था वहाँ
कोई चिन्ह
अपने होने का
अहसास दिलाने की जद्दोजहद 
वाद विवाद, संवाद, परिसंवाद, 
कोई बहस, कोई होड़,   
था तो 
तुम्हारी ही तरह 
मेरी उंगलिओं की पोरों की,
छुवन को तरसता. 
मेरी पुस्तक के,
पहले पन्ने से,
आखिरी पन्ने तक
आराम फरमाता मौन. 

18 टिप्‍पणियां:

  1. Maun hi srvtr wyapt hai jahan bhedne ko kuch nahi....sarthak abhiwyakti....

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  2. खुली किताब के मौन शब्द. जिसे केवल देखा जा सकता है, पढ़ा नहीं...सच में शब्द मौन हो जाते हैं कई बार ....बहुत सुंदर रचना

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  3. कृपया शीर्षक ठीक कर लें..वजूद का बजूद हो गया है...

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  4. आराम फरमाता मौन

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  5. धन्यवाद हिमकर जी भूल सुधार ली है

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  6. रचना जी,
    बहुत सुन्दर रचना है, आभार !

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  7. बहुत बहुत सुन्दर मेरी पसंद का है ये मौन आदरणीया

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  8. बहुत ख़ूबसूरत अहसास और उनका मुखर होता मौन...

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  9. आप बहुत ही अच्छा लिखती है ,पढ़कर तसल्ली होती है ,बधाई भी शुक्रिया भी .

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  10. मौन की कहानी भी कितना चीख चीख कर अपनी जुबानी कह रही है ...

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  11. सुन्दर रचना , , बेहतरीन अभिब्यक्ति , मन को छूने बाली पँक्तियाँ
    कभी इधर भी पधारें

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  12. बहुत सुंदर। दिल की गहराई से निकली कविता।

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  13. अभिव्यक्ति में सच्चाई के तारे टांक कर आपने इसे और सुन्दर बना दिया है !

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