रविवार, 10 मई 2015

स्त्री

स्त्री 
नम्रता, विनम्रता आभूषण है स्त्रिओं के 
स्त्री हूँ, सो लोभ संवरण न कर सकी.
अपने से बड़ों ने बुरा किया 
या सोचा मेरे लिए,
समझा आशीर्वाद, 
रख लिया सर माथे पर.
छोटों ने कहा कुछ भी,
अबोध है, नासमझ हैं...
समझा लिया मन को. 
कहते हैं पेड़ में फूल लगें,
तो झुक जाता है.
लगे फल 
तो झुक कर दोहरा हो जाता है.
कितना झुकूँ , 
कितना झुकूँ , 
कितना झुकूँ , 
कई बार निकल जाती है
चीख भी हल्की सी,
और कितना झुकोगी,
बस भी करो अब 
नहीं जानती रीढ़, बिना रीढ़
और दोहरी रीढ़ का मतलब,
फिर भी सोचती हूँ 
बिना रीढ़ वालों  से 
दोहरी रीढ़ वाली मैं भली.

11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर और भावपूर्ण

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  2. बहुत सुंदर...झुकना दुर्बलता की नहीं सबलता की निशानी है पर झुकना भी तभी सार्थक है जब सामने वाले को भी झुकना सिखा दे..

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  3. गलती मानने के लिए झुकना .....बड़प्पन की निशानी है |
    शुभकामनायें|

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  4. लगभग हर भारतीय नारी की यही कहानी1 और इस जीवन को जैसे भी हो परिवार मे बन्ध कर ही चलना झ्रेय्स्कर है1

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  5. बहुत हृदयस्पर्शी रचना है ये, मानो सबकुछ सामने ही घट रहा हो...

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  6. नारी मन की सोच का सटीक चित्रण. बिलकुल सच कहा है कि बिना रीढ़ वालों से दोहरी रीढ़ वाली भली...शायद यही नारी जीवन है...बहुत सुन्दर प्रस्तुति...

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  7. नारी मन के भाव जैसे स्वतः हो आ गए शब्दों का आकर ले कर ...
    नारी जीवन इसी को तो कहते हैं ...

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  8. बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति ..

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  9. सच है कई बार लगता है कितना झुकें ? हर नारी के जीवन की वास्तविकता है ये।
    मार्मिक चित्रण सुन्दर प्रस्तुति।

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