रविवार, 15 नवंबर 2015

अच्छे दिन

अच्छे दिन
 

खुश हूँ अच्छे दिन आए हैं 
सदियों से झुग्गी बस्तियों में बसने वाले 
सडान बदबू में रहने वाले 
नाले नालिओं में पनपने वाले
अब नहीं रहते हैं वहां.
बदल गया है बसेरा 
आयें है अच्छे दिन 
रहते हैं साफ़ सुथरी हवा में
अति विशिष्ट व्यक्तियों के घरों में
दीदार करते हैं 
अभिनेता अभिनेत्रियों का
छू पाते है उनका शरीर
उठना बैठना है 
उच्चवर्गीय समाज में
अच्छे दिन आए हैं
सफर तय हो चला है
मच्छरों का 
मलेरिया से डेंगू तक.

रविवार, 8 नवंबर 2015

अभिशप्त

अभिशप्त

मैं चाँद हूँ
दागदार हूँ
अनिश्चितता मेरी पहचान है
कभी घटता  कभी  बढ़ता
कभी गुम  कभी हाज़िर 
मैं सूरज की तरह 
चमकता नहीं
पर उसकी तरह 
अकेला भी नहीं
मेरे साथ हैं अनगिनत 
सितारों की चादर
मेरे न होने पर भी 
टिमटिमाते हैं तारे
आने वाली है दीपावली
घुटने लगा हूँ 
फिर एक बार
पूरी धरती जगमगाएगी
राम के स्वागत में नज़र आएगी
नहीं देख पाया 
एक भी दीपावली 
आज तक
हाँ
मैं एक दीपावली
के इंतज़ार में
अमावस का 
अभिशप्त चाँद हूँ  

रविवार, 1 नवंबर 2015

मासूम चाँद भी

मासूम चाँद भी

यूँ ही एक दिन
पूंछा था चाँद से
क्यों घटते बढ़ते हो
क्यों रहते नहीं एक से
सूरज की तरह.
इधर उधर देखा
मायूसी  को
भरसक छुपाया
बोला एक दीपावली की रात
देखने को
धरती की जगमगाहट
आँखों में भर लाने को
राम को शीश नवाने को
अनवरत प्रयत्नरत हूँ
सदियों से
कभी घटता 
कभी बढ़ता
कभी दीखता 
कभी छुपता
किसी भी तरह
किसी भी तरह
अमावस की
एक झलक पाने को ……
ये जुगाड़ की जिंदगी
हम ही नहीं जीते
ये चाँद भी जीता है  

रविवार, 25 अक्तूबर 2015

दशानन

दशानन

मैं रावण
अधम पापी नीच
सीता हरण का अक्षम्य अपराधी
सब स्वीकार है मुझे.
मैं प्रतिशोध की आग में जला  था,
माना कि मार्ग गलत चुना था.
किया सबने भ्रमित मुझे 
मार्ग दर्शन किया नहीं किसी ने.
मैं वशीभूत हुआ माया जाल के.
मैंने भी फिर किया
विस्तार माया जाल का. 
देख सीता मुग्ध हुआ मैं.
ये दोष तो मेरा नहीं था
फिर भी मैं मानता हूँ
मैंने हरा सीता को तो क्या?
मैंने किया छल कपट तो क्या?
मैंने दिया सीता को प्रलोभन तो क्या?
पटरानी बनाने का मन बनाया तो क्या?
पूरी लंका को विधवा बनाया तो क्या?
नहीं किया स्पर्श
सीता को उसकी अनुमति के बिना.
वो पवित्र थी जैसी रही वो वैसी. 
मरे दस सर तो दीखते हैं.
हाँ! मैं हर जन्म में 
रावण ही बनना चाहूंगा,
आज का मानव नहीं.

रविवार, 18 अक्तूबर 2015

एक रामलीला यह भी

एक रामलीला यह भी 

यूं तो होता है 
रामलीला का मंचन
वर्ष में एक बार
पर मेरे शरीर के 
अंग अंग करते हैं
राम, लक्ष्मण,
सीता और हनुमान
के पात्र जीवन्त.
देह की सक्रियता
सतर्कता, तत्परता 
और चैतन्यता के
लक्ष्मण की उपस्थिति
के बाद भी
मष्तिष्क का रावण 
देता रहता है प्रलोभन
भांति भांति के जब तब 
दिग्भ्रमित हुआ है 
मन जब जहाँ 
अपह्रत हुई है 
ह्रदय की सीता तब तहां 
आत्मा का राम 
करता है करुण कृन्दन 
अंतर्ज्ञान का हनुमान 
करता है प्रयास 
पुनर्मिलन का 
आत्मा और ह्रदय का 
राम और सीता की तरह
एक उम्र गुजर जाती है 
अपने ही ह्रदय को
अपनी ही आत्मा से 
मिलने में 
एक सार करने में.

रविवार, 11 अक्तूबर 2015

कुछ सपने मेरे

कुछ सपने मेरे

आज एक अजीब सी
उलझन, कौतुहल,
बेचैनी, उद्विग्नता है.
भारी है मन
और उसके पाँव.
कोख हरी हुई है
मन की अभी अभी.
गर्भ धारण हुआ है अभी अभी
कुछ नन्ही कोपले फूटेंगी,
एक बार फिर
डरती हूँ,
ना हो जाये
जोर जबर्दस्ती से
गर्भपात
एक बार फिर.
ना तैयार हो
दूध भरा कटोरा,
जबरदस्ती डुबोने को,
यह सच है
मेरी मन की कोख में
जन्म लेने को आतुर हैं.
फिर कुछ सपने मेरे
नहीं समझ पाई अब तक,
क्यों असमय ही
तोड़े जाते हैं
मौत की नींद सुलाए जाते हैं
जबरन मुझसे छीने जाते हैं
कुछ सपने मेरे,
क्या सपनों का भी
कोई लिंग होता है
पुल्लिंग या......

रविवार, 4 अक्तूबर 2015

महात्मा

महात्मा


देखती आई हूँ बरसों से
अपनी ही प्रतिमा में कैद
महात्मा को धूप धूल
चिड़ियों के घोसले
और बीट से सराबोर,
मायूस
हर सितम्बर माहांत में
चमकते है,
मुस्कुराते हैं,
दो अक्टूबर को बाहर भी आते हैं.
हम सब के बीच
हमारे मन मष्तिष्क में
विचरते हैं
पर इस बार
कुछ भी नहीं हुआ ऐसा
अंग्रेजों से अहिंसा के
सहारे जीतने वाले
महात्मा
नहीं आए बाहर
कहीं जबरदस्ती हो ना जाये
उनका या उनकी पुरानी पीढ़ियों का
धर्म परिवर्तन
उनका अहिंसा का सिद्धांत
ही न बन जाए
हिंसा का कारण
एक बार फिर
बाहर ना आकर
किया है सत्यापित
अपने अहिंसा के सिद्धांत को

रविवार, 27 सितंबर 2015

रिश्तों में जीवन

रिश्तों में जीवन 

भूकंप में नहीं गिरते घर 
गिरते हैं मकान
मकान ही नहीं गिरते
गिरती हैं उनकी छतें
छतें भी यूँ ही नहीं गिरती
गिरती हैं दीवारें
गिरातीं हैं अपने साथ छतें
फिर अलग अलग घरों के
बचे खुचे जीवित लोग
मिल कर बनाते हैं
पहले से कहीं अधिक
मजबूत दीवारों वाले मकान
फिर बनाते है घर
होते हैं तैयार
आने वाली किसी
आपदा विपदा के लिए
आओ सीखें
भूकंप और भूकंप पीडितों से कुछ
सजाएँ संभालें पिरोयें जीवंत करें
भूले बिसरे टूटे
अमान्य, मृतप्राय
रिश्तों को.

रविवार, 20 सितंबर 2015

प्यास

प्यास

प्याज में मात्र
भोजन की सीरत सूरत स्वाद सुगंध
बदलने की कूबत ही नहीं
सत्ता परिवर्तन की भी क्षमता है.
प्याज और सरकार
एक दूसरे के पर्याय हैं.
एक जैसे गुण अवगुण
एक जैसे भूमिगत तलघरों की तरह
एक के भीतर एक
परत दर परत खुलना
गोपनीयता यथावत.
हर बार बढती जिज्ञासा
अंततः हाथ खाली के खाली
और ऑंखें नम.
नहीं जानती
प्याज को सत्ता का नाम दूँ
या सत्ता को प्याज
या दोनों का संमिश्रण व संश्लेषण कर
प्या--स कहूँ
क्योंकि ये प्यास है बड़ी.

रविवार, 13 सितंबर 2015

पतन

पतन

सुना है गिरना बुरा है 
देखती हूँ  आसपास 
कहीं न कहीं,
कुछ न कुछ 
गिरता है हर रोज़.
कभी साख गिरना 
कभी इंसान का गिरना 
इंसानियत का गिरना
मूल्यों का गिरना   
स्तर गिरना 
कभी गिरी हुई मानसिकता
गिरी हुई प्रवृत्तियां.   
अपराध का स्तर गिरना 
नज़रों से गिरना 
और कभी 
रुपये का गिरना 
सोने का गिरना 
बाज़ार का गिरना 
सेंसेक्स गिरना 
और यहाँ तक 
कि कभी तो 
सरकार का गिरना
समझ नहीं पाती 
ये इनकी चरित्रहीनता है 
या 
गुरुत्वाकर्षण.

रविवार, 6 सितंबर 2015

कश्ती

कश्ती

आम बच्चों की तरह
कागज की कश्ती बनाना
उसे पानी में तैराना
तैरते देखना
खुश होना
तालियाँ बजाना
मैंने भी किया था
ये सब कभी.
पर मैंने बह जाने नहीं दी
कश्ती अपनी कभी.
आज भी सहेजी है.
सोचती हूँ
कभी तो फिर तैरेगी
बचपन की तरह.
अंतर इतना है
कभी मीठे
सोंधे पानी में
उबड खाबड
रास्तों से जाने वाली
मेरी कश्ती
जाने कबसे
तैरने लगी है
सीधे सपाट रास्तों पर
अनवरत,
निरंकुश,
अविरल
मात्र खारे पानी में
खारा पानी फिर चाहे
प्याज के होने का हो
या न होने का
या ......

रविवार, 30 अगस्त 2015

हाथ का मैल

हाथ का मैल
बचपन से सुनती आई हूँ 
आप सब की ही तरह  
पैसा ही जीवन है. 
पैसा आना जाना है.
पैसा हाथ का मैल है. 
समय के साथ 
बदलती परिभाषाओं ने
इसे भी अछूता नहीं छोड़ा 
बदल गई है 
इसकी किस्मत,
कीमत और तबियत
हमारें संस्कारों में
उच्चतम स्थान प्राप्त
व पाप धोने का साधन
गंगा हो गया है ये.
कितना अपमानित
महसूस कर रही होगी
माँ गंगा.
पैसे से अपनी तुलना
और पुल्लिंग सम्बोधन ...
पर ये सच है
पैसा पाप धोता है.
पाप धोने वाले 
या पाप धुलवाने वाले 
दोनों के हाथों को
सुगन्धित करता है.
बाजार में उपलब्ध
साधनों संसाधनों
में सर्वश्रेष्ठ है.
असरकारक है.
पैसा एक बेहतरीन,
सुगन्धित हैण्ड वाश है.

रविवार, 23 अगस्त 2015

दुआएं

दुआएं
कल के 
उस त्यौहार में 
पाप धोने के 
उस प्रयास में 
इंसान ही नहीं 
जानवरों ने भी दी दुआएं
वो रुपहली प्लेटे,
प्लास्टिक की 
डिज़ाइनर कटोरियाँ,
जरूर जानती हैं 
कोई वशीकरण मंत्र
खींचती हैं सबको अपनी ओर 
कुत्तों ने सूंघा, चाटा, खाया 
कुछ ने ढूंढी हड्डियां. 
इतना सब कुछ 
सब तरफ देख
होश खो बैंठीं गाय
बतियाती हुईं आयीं
लो हो गई आज की
किटी पार्टी पूरी
फिर क्या था 
क्या प्लेट
क्या कटोरी 
वाह...वो रंग बिरंगे
पालीथीन   
लाल, हरे, नीले, पीले, बैंगनी 
मिनटों में चट
मानों सफाई कर्मचारियों का दल था 
नहीं जानती 
कहाँ सहेजेंगे ये लोग 
इतनी दुआओं को.

रविवार, 16 अगस्त 2015

अतिथि

अतिथि
कुछ समय से
घर भर गया है
मेहमानों से.
घर ही नहीं 
शरीर, मन, मस्तिष्क
चेतन, अवचेतन.
ये मात्र मेहमान नहीं
मेहमानों का कुनबा है.
सोचती हूँ
मन दृढ करती हूँ 
आज पूंछ ही लूँ 
अतिथि
तुम कब जाओगे
पर संस्कार रोक लेते है.
ये आते जाते रहते है 
पर क्या मजाल
कि पूरा कुनबा
एक साथ चला जाये
शायद उन्हें डर है 
उनकी अनुपस्थिति में 
वो धरोहर जो मुझे सौंपी गई,  
वो किसी और के 
नाम न लिख दी जाय.
हाँ! चिंता, दुःख,
इर्ष्या, डर और 
इनकी भावनाएं 
मेरे मस्तिष्क में
स्थायी निवास कर रही हैं.

(चित्र गूगल से साभार)

रविवार, 9 अगस्त 2015

सावन

सावन
सब कुछ साफ,
धुला, उजला,
हरा, चमकदार
निरंतर गति प्रवाह,
कर्णप्रिय ध्वनि संगीत
सब कुछ
लगता है अच्छा  
अखरता है
तो ठहराव,
जल भराव,
कीचड़, सडांध   
नमी, दरारें
उनमें उगते
जंगली घास फूस
काई, बिछलन, फिसलन.
वर्ष में कुछ निश्चित समय के लिए
अच्छा लग भी जाए ये,
पर मन के भीतर
रहता ये सावन जब तब.
करता है अवरुद्ध
भीतर के नाले नालियां,
तालाब, नदियाँ
फिर सैलाब की तरह
आता है ये सावन
कुछ भी नहीं दिखता हरा
हर तरफ मात्र श्वेत श्याम
भला ये भी कोई सावन हुआ
श्वेत श्याम.

(चित्र गूगल से साभार)

रविवार, 2 अगस्त 2015

सरगोशी

सरगोशी

बारिश में भीगी 
गीली सीली 
सराबोर धूप ने 
कल मेरी 
सांकल बजाई. 
राहत की साँस ली,
चलो कहीं कोई तो है.
हताश थी,
कितना हठी,
और बेपरवाह 
है सूरज. 
जब भी आता है, 
धूप के बिना
नहीं आता.
सूरज और धूप 
ज्यों धूप और साया 
हो गये.
आ जाओ,
कभी बदली का 
आंचल भी थाम लो
कभी उसके पीछे भी 
छुप जाओ 
कभी तो छोड़ दो 
धूप को अकेला 
मैं इतना सिर्फ 
इसलिए कह रही हूँ 
सबको तपिश देने वाले 
कभी तो जानो 
किसी के न होने का अर्थ.  

रविवार, 26 जुलाई 2015

मन की बात

मन की बात

मन की बात जबसे मन की न रही, 
इनकी उनकी जन जन की हो गई.
पूरे शहर में चर्चा ये पुरजोर है
 बात भी अब बदचलन हो गई.

मुद्रा का उठना, उठ-उठ के गिरना,
समस्या देश के उत्प्लवन की हो गई,
जो मुह खोले उसकी हत्या, आत्महत्या, 
बात इंसानियत के हनन की हो गयी.

अपराध जगत और उसके किस्से
सुन सुन के इच्छा वमन की हो गई   
नसों में रक्त नहीं, दौड़ती चाटुकारिता
कहते हैं बात महिमामंडन की हो गई.

भ्रूण हत्या, शीलहरण फिर चरित्र हनन
कैसी पराकाष्ठा भ्रष्टाचरण की हो गई.
बिकता है माँ का दूध भी बाज़ारों में अब, 
देखो नीलामी माँ के स्तन की हो गई.

इस तरह मुख म्लान हुआ देश समाज का
घड़ी मनन, चिंतन, स्तवन की हो गई.    
मन की बात जब से मन की न रही,
इनकी उनकी जन जन की हो गई.

पूरे शहर में चर्चा ये पुरजोर है 
मन की बात भी अब बदचलन हो गई.

रविवार, 19 जुलाई 2015

याददाश्त

याददाश्त 

 मैं कुंठित हूँ,
व्यथित हूँ,
क्षुब्ध हूँ, 
क्या हृदय ही जीवन है ?
मैं भी तो हृदय की खुशी में खुश 
उसके दुख,
असफलता, 
दर्द, पीड़ा में 
उसके साथ ही 
ये सब अनुभव करता हूँ 
फिर हृदय ही क्यों 
क्या सही रक्तचाप, 
हृदय गति
रक्त विश्लेषण 
और
धमनियों में वसा 
न जमने देना ही 
जीवन है 
जब भी हृदय होता है 
क्षुब्ध, कुंठित, 
मैं सहमता हूँ, 
सिकुड़ता हूँ 
अवसादग्रस्त होता हूँ, 
भूल बैठता हूँ,
अपने आप को 
धीरे धीरे देता हूँ 
शरीर को
भूलने की बीमारी 
मैं, हाँ! मैं
मस्तिष्क का
उपेक्षित हिस्सा 
अध:श्चेतक (हाइपोथेलेमस) हूँ 
जब भी किसी
अनहोनी के बाद
आता है चिकित्सक
जांचता है,
देता है,
दवाइयां जाने किसकी. 
नहीं सोचता, है तो,
मेरे बारे में.

रविवार, 12 जुलाई 2015

जीत

जीत

तुम्हारी वो 
जीतने की,
शीर्ष पर रहने की, 
सदैव अव्वल आने की जिद, 
हर छोटी होती लकीर के आगे 
बड़ी लकीर खींचते रहना. 
छोटी लकीरों को 
पीछे छोड़ते रहना 
मात्र बड़ी लकीरों में जीना,
सदैव जीतते रहना. 
और मैं 
तुम्हारी छोड़ी हर लकीर में 
जीती रही,
जीवंत होती रही, 
जीतती रही.
कभी जब तुम 
अपनी इस जीतने की जिद से 
उकता जाना,
थक जाना,
कुछ नया करने की सोचना
कोशिश करना याद करने की 
हर उस छोटी लकीर को
जिसने तुम्हें शीर्ष पर पहुंचाया. 
और मैं एक बार फिर
जीत लूंगी,
जी लूंगी,
जीवंत हो उठूंगी.

रविवार, 5 जुलाई 2015

इत्मिनान है की वो खुश हैं

इत्मिनान है की वो खुश हैं

 

चलती हूँ जब भी, 
उतरती चढ़ती हूँ सीढ़ियाँ, 
आती हैं अजब सी आवाज़े,
घुटनों में हड्डियों से,   
कभी कड़ाती, खड़खड़ाती,
कभी कंपकपाती.
गुस्से में लाल पीला होते तो सुना था,
यहाँ तो नीली हो जाती हैं नसें.
दबोचती हैं हड्डियां उन्हें जब. 
कभी खींचती हैं मांस,
कभी बनाती हैं मांस का लोथड़ा. 
दर्द से सराबोर 
न कोई हंसी,
ना खिलखिलाहट,
ना लोच.
कुछ भी तो नहीं रहा अब यहाँ.
मनाती हूँ नसों को, 
दिखाती हूँ लेप का डर. 
नहीं मानती वो.
कभी छुप जाती हैं,
हड्डियों के नीचे, कभी मांस के नीचे. 
होती है सारी रात लुका छिपी, 
इनकी मेरी नींद से.
खुश होती हैं वो कहती हैं.
कभी तुम थे, हम नाहीं,
अब हम हैं तुम नाहीं.

रविवार, 28 जून 2015

इज़हारे- ख़याल

इज़हारे- ख़याल

ये उम्र अपनी इतनी भी कम न थी,
अपनों को ढूंढने में गुजार दी दोस्तों.

पांव में छाले पड़े है इस कदर,
अपनों में, अपने को खो दिया दोस्तों.

कसमें वादों पे न रहा यकीं अब हमें,
बंद आँखों से सच को टटोलते हैं दोस्तों.

वो इश्क वो चाँद तारे जमीं पर,
सब किताबों की बाते है दोस्तों.

इस कदर मुफलिसी में कटी है जिंदगी,
इश्क कुबूल करने को, झोली उधार ली दोस्तों.

वो सिक्के सारी उम्र जोड़े थे हमने,
उनका चलन बंद हो गया दोस्तों.

यूँ तो जीने की चाहत बहुत है हमें,
पर अपनों ने तड़पाया बहुत दोस्तों.

वक्त आखिरी है ये जानते है हम,
इसलिए सबसे मुखातिब हैं दोस्तों.

कातिल करीब था खंजर लिए हुए,
शायद खंज़र में धार कम थी दोस्तों.

मेरी लाश के कांधों पर मेरा सर रख दो, 
एक कांधे को सारी उम्र तरसी हूँ दोस्तों.

कफ़न मेरा, मुझे मिले, न मिले,
मेरे अपने सलामत रहें दोस्तों.

मेरी कब्र के बाहर मेरा हाथ रखकर,
वो गया कोई मेरा हमसफर दोस्तों.

ये उम्र अपनी  इतनी भी कम न थी,
अपनों को ढूंढने में गुजार दी दोस्तों.

रविवार, 21 जून 2015

हृदयाघात

हृदयाघात

धमनी के गलियारों में तब उत्सव होता है 
रक्तजड़ित सिंहासन पर जब हिय बैठा होता है

वसा से  चहुँ ओर सुगन्धित फिर लेपन होता है 
तेरे भित्ति चित्रों से हिय का अभिवादन होता है

हर्ष उल्लास का प्रथम अवलोकन होता है 
रुधिराणुओं की रोली से अभिनन्दन होता है

घृत शर्करा, मधु कणों से अनुमोदन होता है
अन्तःस्त्राव का अन्तःकरण में अवशोषण होता है

अम्ल क्षार लवन का अधिक आवागमन होता है
रक्त कणिकाओं का खुल कर के नर्तन होता है

श्वासों -उच्छ्वासों में फिर विच्छेदन होता है 
स्वेद कणों का चेहरे पर आच्छादन होता है

मूर्छित हो कर गिरना मानों अन्वेषण होता है 
हाथ उठाते ही जैसे कुछ घर्षण होता है

कानों में मेरे एक उदघोषण होता है 
वो कहते है हृदयाघात का लक्षण होता है
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