मंगलवार, 12 नवंबर 2013

ख्वाब

ख्वाब
 
झलती रही पंखा साँझ सारी शाम,
रात बोझिल हुई चुप चाप सो गई.

मुंह ढांप के कुहासे की चादर से,
हवा गुमनाम जाने किसकी हो गई.
 
चाँद ने ली करवट बांहों में थी चांदनी,

रूठी छूटी छिटकी ठिठकी वो गई.
 
बदली के आंचल की उलझने की हठ,

आकाश की कलँगी भिगो गई.

बादल के बाहुपाश में आ कर दामिनी,
मन के सारे गिले शिकवे भी धो गई.
 
राग ने रागिनी को धीमे से जो छुआ,
वो बही बह के कानों में खो गई.

आँखों में ख्वाब के अंकुर ही थे फूटे,
सुबह नमक की खेती के बीज बो गई.
 
  सज संवर के पंखुरियों पे बैठी थीं जो,
आज वो ओस की बूंदें भी रो गईं.

मन की गठरी है आज भी बहुत भारी,
पर हाय मेरी किस्मत उसको भी ढो गई.

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