रविवार, 30 जून 2013

विरक्ति

विरक्ति 


सब कहते हैं
मेरी माँ ने
मेरे शरीर में रोपी थीं
कुछ नन्हीं कोपलें
गन्ने की
तब जब थी मैं
उनके गर्भ में
समय के साथ बढती रही
मैं और वो फसल
हंसना, खिलखिलाना,
हँसाना, मिठास बिखेरना
मेरा पर्याय हो गया
अचानक उम्र के
किसी मोड पर.
छूट गया सब कुछ.
सूखने लगी मैं
और वो फसल
जमने लगा शरीर के भीतर
गुड, गाढ़ी चिपचिपी
चाशनी और शर्करा.
अचानक किसी
चिरपरिचित आवाज का
ये पूछना
तुम वही हो ना
जो अपनी बातों से
हवाओं में मिश्री
घोला करती थीं कभी !
खोजने लगी अपने आपको
झाँका अपने भीतर
ये मैं हूँ ?
पाया उपेक्षित पड़ा
मिठास का भंडार.
अब हँसने मुस्कुराने 
चहकने महकने लगी हूँ
बिखेरना चाहती हूँ 
मिठास एक बार फिर 
उम्मीद है 
जल्दी ही लहलहाएगी
गन्ने की कोपलें 
जो माँ ने रोपीं थीं 
जब मैं थी उनके गर्भ में.

रविवार, 23 जून 2013

विकास की इबारत

विकास की इबारत 


आज कल देखती हूँ हर शाम
लोगों को बतियाते, फुसफुसाते
जाती हूँ करीब
करती हूँ कोशिश
सुनने की समझने की
कि पास के बाग में
पेड़ों पर रहते हैं भूत
नहीं करती विश्वास उन पर
पहुँचती हूँ बाग में
देखती हूँ हरी भरी घास
छोटे नन्हें पौधों को अपनी छत्रछाया में
बढ़ने और पनपने का अवसर देते
चारों तरफ फैले बड़े ऊँचे दरख़्त
कुछ भी असहज नहीं लगता
बढती हूँ दरख्तों की ओर
अचानक कुछ आहट, सरसराहट
पत्तों में कंपकंपाहट
अचानक सांसों को रोकने से
उठती अकुलाहट
बडबडाती हूँ मैं
मैं अदना सा इंसान
न बाउंसर, ना बौडी बिल्डर
भला मुझसे क्या और कैसा डरना
मेरी बात से हिम्मत पा
एक नन्हा पौधा बोल ही पड़ा
हम तो डरते हैं
आप जैसे हर किसी से
क्योंकि हम नहीं जानते
कब किस वेश में आ जाय
यमराज रूपी कोई बिल्डर.

रविवार, 16 जून 2013

जेठ की दुपहरी में

जेठ की दुपहरी में


जेठ की दुपहरी में
आम और अम्बौरी में
कोयल और गिलहरी में
मन के आंगन और देहरी में
छाया उस छरहरी में

खुशबू तुम फुरहरी मैं.

दग्ध प्रज्वलित बयारी में
तन की क्यारी क्यारी में
फल सब्जी तरकारी में
हल्की झीनी सी सारी में
राधा और बनवारी में

गन्ना तुम खांडसारी मैं.

इतने बरसों की दूरी में
उस शाम एक सिंदूरी में
उन आँखों भूरी भूरी में
तेरी खुशबू कस्तूरी में
मेरी इक मंजूरी में

आए पास तुम पूरी मैं.

प्यार की खुमारी में
मेरी अलकों कजरारी में
अपनी उस लाचारी में
सांसों भारी भारी में
हम दोनों की शुमारी में

जीत गए तुम हारी मैं.

रविवार, 9 जून 2013

आग

आग

सुलग रही हूँ जाने कब से
समझने लगी थी
नाते रिश्ते दुनिया जबसे
कभी महकती
सबको महकाती
खुशबू बिखेरती
कभी धुआं धुआं
भीतर बाहर सब तरफ
कालिख ही कालिख
जलना जलना सुलगना
मेरी आदत हो गई
उम्र के इस पड़ाव पर सुलग.
नहीं जल रही हूँ आज भी
पर एक लौ की तरह
नहीं छोड़ती अब धुआं
सुगंध या दुर्गंध
धुन आज भी वही
जलना जलाना
अपने भीतर बाहर
और आसपास
फैलाना तो सिर्फ प्रकाश
राह दिखाना अँधेरा दूर करना
कभी मैं अगरबत्ती सी
जला करती थी
आज दिए सी जल रही हूँ.

रविवार, 2 जून 2013

दायरे

दायरे

देखती हूँ थोड़ी थोड़ी दूर पर खड़े
बांस के झुरमुटों को
कैसे खड़े हैं सीधे सतर
अपने और सिर्फ अपनों को
अपनी बाँहों के दायरे में समेटे
कभी कोई नन्हीं बांस की कोपल
बढती है बढ़ना चाहती है
पास के बांस समूह की तरफ
एक वयोवृद्ध बांस
झुकता नहीं
टूटता है टूट कर गिरता है
उस नन्हीं कोपल पर
कभी अपने आप से अलग करने
कभी उस समूह से अलग करने को
बनी हैं ये दूरियां आज भी
कोई सुखी है या नहीं
पर सभी अपने अपने दायरों में सीमित
क्या अपनी प्रकृति से हमें सीखने को
यही मिला था.......
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