रविवार, 21 अप्रैल 2013

बसंत विभावरी

बसंत विभावरी 
 


बांधी है गठरी वसंत ने जब से,
तपने लगी देह हवा की तबसे.

मिलन की खुमारी उतरी नहीं थी,
जुदाई के आँसू हैं राह में कब से.

मायूस फूलों की धड़कन अधूरी,
पराग औ भंवरें भी रूठे हैं रब से.

पत्तों का पेड़ों से लिखा है बिछुड़ना,
धरा पर विचरते ये फिर क्यूँ अजब से.

न धानी चुनरिया न पीला वो आंचल,
उड़ती है माटी जाने किसके सबब से.

ये ऋतुएं ये ऋतुओं की रानी महरानी,
बदलती हैं ये करवट कैसे गज़ब से.

बांधी है गठरी वसंत ने जब से,
तपने लगी देह हवा की तबसे.

17 टिप्‍पणियां:

  1. ये ऋतुएं ये ऋतुओं की रानी महरानी
    उम्दा अभिव्यक्ति
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत लाजवाब ... बदलते मौसम के रंगों को बाँधने का प्रयास ...
    बहुत ही उम्दा प्रस्तुति ...

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुन्दर....
    सतरंगी सी रचना....

    सादर
    अनु

    जवाब देंहटाएं
  4. ये कविता लगी है मुझे और सुन्दर,
    पड़ी तपती ऋतु में ये बूँदें हैं जबसे!

    जवाब देंहटाएं
  5. ऋतु परिवर्तन को माध्यम से गहन चिंतन

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  6. Wah mausam kee badalti karwat ko kis khoobee se bayan kiya hai. Bahut sunder.

    जवाब देंहटाएं
  7. बदलते मौसम की बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति...

    जवाब देंहटाएं
  8. बदलते मौसम की सुन्दर शब्द वर्षा..

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