सोमवार, 31 दिसंबर 2012

नववर्षागमन


नववर्षागमन
आओ खाएं सौगंध, करें तैय्यारी.
तैय्यारी नववर्षागमन  की.
आन पड़ी है आवश्यकता
अब तो नव बीज वपन की
बदले आचारण अपना, छोड़ दें
आदत स्वस्तवन की
करें लहूलुहान आस
आज हर मलिन मन की.
बन जाएँ आंधी इस बार
दरिंदगी दमन की.
न रहे ये शब्द अब शब्द कोष में.
यही चाहत है आहत मन की
आओ खाएं सौगंध, करें तैय्यारी.
तैय्यारी नववर्षागमन की
आओ खाएं सौगंध, करें तैय्यारी.
तैय्यारी नववर्षागमन की.
करें जतन बदल दें दिशा
समाज के आचरण की
फले फूले समाज
न रहे जगह व्याभिचरण की.
दें सम्मान, करें रक्षा,
प्रकृति, धरती, माँ, बहन की
न मैं, न तू, बनें हम.
हो शुरुवात यही संचलन की
उतार दें हर देनदारी
पुराने हर दारुण क्षण की
आओ खाएं सौगंध, करें तैय्यारी
तैय्यारी नववर्षागमन की.

रविवार, 30 दिसंबर 2012

कब लगेंगे पेड़


कब लगेंगे पेड़
कब फूटेंगी कोपलें,
कब खेलूंगी
धूप छावं का खेल.
कब आँगन में किसी बच्चे की
बन के छाया
अठखेलियाँ करूंगी.
कब आएगा बादल.
कब बरसेगी बदली.
कब दिन भर अपने घर बैठ
चिंतन करूंगी.
आगे बढ़ने होड़ में,
ऐ दुष्ट प्राणी!
तूने क्या खोया, क्या पाया?
पैसा कमाने की होड़ में
भूल गया मुझ दुखयारी को.
थक गयी हूँ मैं.
मुझे विश्राम चाहिए.
मुझे कुछ पेड़ चाहिए.

रविवार, 23 दिसंबर 2012

सूर्य का संताप

सूर्य का संताप

मैंने बचपन से आज तक
हर रोज़
सूरज को सुबह औ शाम
गंगा नहाते देखा है
जैसे मानो उसने
भीष्म प्रतिज्ञा कर रखी हो
गंगा में डुबकी लगाये बिना
गंगा के चरण स्पर्श किये बिना
न तो मैं धरती में प्रवेश करूँगा
न ही धरती से बाहर आऊंगा.

इधर कुछ दिनों से देखती हूँ
सूरज कुछ अनमना सा है
हिम्मत जुटा पूंछ ही बैठी मैं
किन सोंचों में गुम रहते हो
बड़ा दयनीय सा चेहरा बना कर
बोला मैं सोचता हूँ
भगवान से प्रार्थना करूं
कि इस धरती पर पानी बरसे
रात दिन पानी बरसे
और कुछ नहीं तो केवल
सुबह शाम तो बरसे.

मेरे चेहरे पे मुस्कान आ गयी
आखिरकार इसे भी 
इन्सान का दुख समझ आ रहा है
फिर सोचा शायद स्वार्थी हो गया है
खुद इतनी लम्बी पारी
खेलते-खेलते थक गया है
कुछ दिन विश्राम करना चाहता है
मेरे चेहरे की कुटिल मुस्कान
देख कर वो बोला
तुम जो समझ रहे हो वो बात नहीं है
दरअसल मैं
इस गन्दी मैली कुचैली गंगा में
और स्नान नहीं कर सकता.

अवाक् रह गयी थी मैं
पूछा
अपनी माँ को गन्दा मैला कुचैला कहते
जबान न कट गयी तेरी.
जवाब मिला
अपनी माँ को इस हाल में पहुँचाने वाले
हर दिन उसका चीर हरण करने वाले
हर दिन उसकी मर्यादा को
ठेस पहुँचाने वाले
तुम इंसानों को ये सब करते
कभी हाँथ पाँव कटे क्या?

फिर मैं ही क्यों?
इसी से चाहता हूँ कि
सुबह शाम बरसात हो
तो कम से कम 
मैं नहाने से बच जाऊँगा
सीधा दोपहर में चमकूंगा
अपना सा मुंह ले कर
कोसती रही मैं
अपने आपके इन्सान को.

रविवार, 16 दिसंबर 2012

भविष्य


भविष्य 
हर दिन  सुबह सवेरे
बनाती हूँ जब चाय
देखती हूँ गर्म पानी के इशारे पे नाचती
चाय की पत्ती
उसका दिल जीतने का
हर संभव प्रयास करती
इतराती, इठलाती, बलखाती,
झूम झूम जाती
तब तक
जब तक बंद नहीं कर देती मैं आंच
जब तक खो नहीं जाता
उसका रूप, रंग, यौवन
सुडौल सुन्दर दानों की जगह
बेडौल थुल थुल काया
फिर बैठ जाता है
पत्तियों का झुण्ड
बर्तन की तली पर
थका, हारा, हताश,
फिर भी शांत.
दूर कर देती हूँ फिर मैं
पत्ती को उसी के पानी से.
सोचती हूँ कहीं
स्त्रीलिंग होने मात्र से
उसका भाग्य स्त्रियों से
जुड़ तो नहीं जाता
नहीं चाहती हूँ उसे
उसी की किस्मत पे छोड़ना
कूड़े के ढेर पर पड़े पड़े खत्म होना
उठाती हूँ बड़े जतन से उसे
ले जाती हूँ अपने सबसे प्यारे
और दुर्बल पौधे के पास
मिलाती हूँ उसकी
सख्त मिटटी में इसे
खिल उठती है वो मिटटी
भुर भुरी हो उठती है
आश्वस्त हूँ अब
जी उठेगा मेरा पौधा
जाते जाते कोई
जीवन दान जो दे गया है उसे.

रविवार, 9 दिसंबर 2012

मौन निमंत्रण

मौन निमंत्रण

ये मेरा है मौन निमंत्रण, आज तुम्हें अजमाने को,
जब मैं पहुंचा देर शाम को, खेतों औ खलिहानों को.

तेरी साँसे पास न आयीं, मेरा दिल बहलाने को,
सो अपनी साँसे भेज रहा हूँ, तुम्हे खींच कर लाने को.

तुम क्या जानो,मुझ पागल, प्रेमी,बेचारे,दीवाने को,
मेरी बाहें मचल रही हैं, तुम्हें पास ले आने को.

सोच रहा हूँ,आलिंगन कर, मजबूर करूं सकुचाने को,
सो अपनी साँसे भेज रहा हूँ, तुम्हे खींच कर लाने  को.

मेरी ऑंखें तरस रही हैं, इक दरस तुम्हारा पाने को,
सूखे अधरों पर प्यास खिली, क्या प्यासे ही रह जाने को.

क्यों पास नहीं तुम आ जाती, मधुशाला छलकाने को,
सो अपनी साँसे भेज रहा हूँ, तुम्हे खींच कर लाने को.

मैंने तो भेजा था तुमको, मेरा दिल ले जाने को,
मेरे दिल से दिल न मिले तो, मजबूर नहीं लौटने को.

याद न मेरी आएगी, अब तेरा दिल भरमाने को,
सो अपनी साँसे भेज रहा हूँ, तुम्हें भूल कर आने को.

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

जंगल और रिश्ते


जंगल और रिश्ते


कभी यहाँ जंगल थे
पेड़ों की बाँहें
एक दूसरे के गले लगतीं
कभी अपने पत्ते बजाकर
ख़ुशी का इज़हार करतीं
कभी मौन हो कर
दुःख संवेदना व्यक्त करतीं
न जाने कैसे लगी आग
सुलगते रहे रिश्ते
झुलसते रहे तन मन
अब न वो जंगल रहे
न वो रिश्ते
जंगल की विलुप्त होती
विशिष्ठ प्रजातियों की तरह
अब अति विशिष्ट 
और विशिष्ट रिश्ते भी
सामान्य और साधारण की
परिधि पर दम तोड़ रहे हैं
रोक लो
संभालो इन्हें
प्रेरणा स्रो़त बनो
इन्हें मजबूर करो
हरित क्रांति लाने को
रिश्तों की फसल लहलहाने को
क्योंकि अब रिश्तों को
मिठास से पहले
अहसास की ज़रूरत है
कि कुछ रिश्ते 
और कुछ रिश्तों के बीज
अभी जीवित हैं.
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