रविवार, 30 सितंबर 2012

अंत


अंत
पहले से ही हताश
हवा के चेहरे पर
उड़ने लगी हैं हवाईयां.
जीवन के अंत का आभास
जो दिला रहे हैं उसके
अनवरत बढते नाखून
बचपन में सुना करती थी
चूहों के लगातार बढते दांत
उससे निजात पाने को.
अपना जीवन बचाने
और बढ़ाने को
सतत कुछ न कुछ
या सब कुछ
कुतरने की मज़बूरी.
पर ये हवा
चूहों की तरह
नहीं कुतरती कुछ भी
न ही खरोंचती है 
कुछ भी कहीं भी
अपने नाखूनों से
ये डालती है खराशें बस
पेड़, पौधों, टहनियों
और डालियों पर.
कभी मीलों चलने पर
मिल जाते हैं
इक्के दुक्के दरख्त.
जगती है खराश डालने
और जीने की कुछ आशा
अचानक पड़ जाता है 
उसका चेहरा पीला.
कहीं आगे निरा रेगिस्तान
तो नहीं देखा है उसने.

30 टिप्‍पणियां:

  1. आह....
    कष्ट हुआ पढ़ कर...

    गहन रचना.

    अनु

    जवाब देंहटाएं
  2. फासले थे तो ठीक था
    यह सामने विराम .... धुंधला है सबकुछ

    जवाब देंहटाएं
  3. कल 01/10/2012 को आपकी यह खूबसूरत पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  4. रचना जी!
    बहुत ही खूबसूरत कविता.. हमेशा की तरह मुग्ध हूँ और मेरी तरफ से स्टैंडिंग ओवेशन!! बहुत खूब!!

    जवाब देंहटाएं
  5. गहन भाव व्यक्त करती...
    संवेदनशील रचना...

    जवाब देंहटाएं
  6. चूहों के दांतों के बारे में पहली बार जानकारी मिली .... जब तक इक्के दुक्के दरख्त हैं तो रेगिस्तान की क्यों सोचें ? आज कल कुछ निराशा की तरफ आपका ध्यान ज्यादा है ।

    जवाब देंहटाएं
  7. अंत तो निश्चित है ..फिर भी हमें जिसे खोना ही है उसे पाने के लालसा में कुछ और खो ही देते है .. आपके लिए हम भी

    जवाब देंहटाएं
  8. झंझकोरती रचना !सब को एक साथ ऐसा अनुभूति क्यों हो रहा ......... !!

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  9. उसका चेहरा पीला. कहीं आगे निरा रेगिस्तान तो नहीं देखा है उसने,,,,

    बहुत बढ़िया अनुभूति कराती कविता,,,,

    RECENT POST : गीत,

    जवाब देंहटाएं
  10. पर ये हवा
    चूहों की तरह नहीं कुतरती
    कुछ भी
    न ही खरोंचती है
    कुछ भी कहीं भी
    अपने नाखूनों से
    ये डालती है खराशें बस

    बहुत सुन्दर व्यंजनात्मक अभिव्यक्ति.

    जवाब देंहटाएं
  11. पर ये हवा
    चूहों की तरह नहीं कुतरती
    कुछ भी
    न ही खरोंचती है
    कुछ भी कहीं भी
    अपने नाखूनों से
    ये डालती है खराशें बस

    बहुत सुन्दर व्यंजनात्मक अभिव्यक्ति.

    जवाब देंहटाएं
  12. जीवन-मरण, सुख-दुख, दरख्त-रेगिस्तान...एक खुशनुमा,एक भयावह...यही तो चक्र है|
    गहन अभिव्यक्ति !!

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  13. जीवन की वेदना का चक्र कुछ ऐसा ही..... गहरी अभिव्यक्ति

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  14. बेहतरीन रूपक उठाया है हवा का .शाम बहुत उदास थी कह कर लेखक खुद को तो बचा ही लेता है यहाँ तो हवा ही जीना मुहाल किए है सारा पर्यावरण सामाजिक और राजनीतिक गंधाने लगा है .

    बढ़िया रचना है रचना जी की .

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  15. वाकई अंत करीब नज़र आने लगा है ...हवाओं का दहशत में आना लाज़मी है .....बहुत देर हो जाये उससे...... पहले कुछ करना होगा..गहन अभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं
  16. इसके पहले "मौत से बातें" और अब "अंत" शीर्षक से लिखी कवितायें अचम्भित करने वाली हैं.आप सुलझी हुई परिपक्व ब्लोगर हैं.आपसे आशावादी रचनाओं की सदैव अपेक्षा रहती है.

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  17. वाह! बहुत ही अच्छी लगी..पर सोच को झझकोरती हुई..

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  18. गहरे भाव लिए बेहतरीन रचना |

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  19. प्रकृति के प्रति चिंतित होने के लिए बाध्य करती अच्छी कविता लगी। हवा, चूहे, दरख्तों के माध्यम से गज़ब की व्यंजना अभिव्यक्त हुई है! चूहों के कुतरने और खराश शब्द का प्रयोग भी अनूठा है। कुल मिलाकर कहूँ तो आपकी यह कविता इस विषय में अनूठे प्रयोग के साथ दस्तक देती है।..वाह!

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  20. मार्मिक!
    मन के भीतर कहीं-न-कहीं चुभ गई यह रचना।

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  21. मन का दर्द शब्दों में झलक रहा है

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  22. गहन अभिव्यक्ति !!!

    जवाब देंहटाएं
  23. ओह कैसी चली हवा ...
    गहन अभिव्यक्ति ....!!

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  24. कई सवाल खड़ी कर रही है ये रचना
    बहुत सुंदर

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  25. आपकी रचना एक अलग सा ही एहसास करा जाती है.कुछ निराशा से ओतप्रोत लगी यह प्रस्तुति.

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  26. पोस्ट दिल को छू गयी.......कितने खुबसूरत जज्बात डाल दिए हैं आपने..........बहुत खूब
    बेह्तरीन अभिव्यक्ति .आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको
    और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

    जवाब देंहटाएं

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