रविवार, 29 जुलाई 2012

बादल


बादल


जब आसमान पर बादल छाए
तुम याद हमें भी आयी हो.

काले बादल का जमघट
ज्यों केशावली लहराई हो.

बादल में बिजली की चम- चम
ज्यों तुम आज कहीं मुस्काई हो.

सर सर सर सर चले पवन
ज्यों चुनरी तुमने लहराई हो.

पानी में मिट्टी की खुशबू
ज्यों साँस तुम्हारी आयी हो.

खिड़की पर बूंदों की छम-छम
ज्यों झांझर तुमने झनकायी हो.

ठंडी  बूंदों की वोह सिहरन
ज्यों पास कहीं तुम आयी हो.

बारिश में वो इन्द्रधनुष
ज्यों ली तुमने अंगडाई हो.

पानी की अविरल जल धारा
ज्यों तुम आलिंगन कर आयी हो.

मेरी अश्रु धारा में 
ज्यों तुम आज नहा कर आयी हो.   

रविवार, 22 जुलाई 2012

चोर हूँ मैं


चोर हूँ मैं


पिछले कुछ सालों से बीमार हूँ
एक अजीब सी लत लगी है मुझे
चोरी की
जब भी कहीं भी किसी को देखती हूँ
मेरी बीमारी उकसाती है मुझे
मन पक्का करती हूँ
फिर भी मजबूर हो जाती हूँ
चुराने को
और फिर....
चुरा लेती हूँ..
अपनी ऑंखें सबसे
पिछले कुछ समय से जुटा पाई हूँ
कुछ साहस
मिलती हूँ सबसे
मिलाती हूँ ऑंखें
करती हूँ बातें
फिर भी जाने का नाम नहीं लेती
चोरी की ये आदत
हर रोज कहीं भी कैसे भी
कुछ भी कर के
चुराती हूँ, छुपाती हूँ,
चाती हूँ सबसे
सिर्फ अपने लिए
नहीं बनाती किसी को भी
अपना सहभागी यहाँ
नहीं बाँटती चोरी का ये माल
किसी के भी साथ
बैठती हूँ अपने साथ,
खाती हूँ अपने साथ,
समय बिताती हूँ अपने साथ
हाँ मैं एक चोर हूँ
चुराती हूँ हर रोज
थोड़ा थोड़ा समय
अपने अपने और
सिर्फ अपने लिए.

रविवार, 15 जुलाई 2012

बरसात


बरसात


कल मेरे शहर में
बड़ी मिन्नतों बाद बरसात हुई.
बदहाल सड़कों,
बीमार नालियों,
हांफते नालों,
में फिर एक बार
बात-मुलाकात हुई.
कुछ कम कुछ ज्यादा
बातें सबकों मान्य हुईं.
हर तरह के तैरते भ्रष्टाचार से
गलियां सड़कें गुलज़ार हुईं.
कल मेरे शहर में
बड़ी मिन्नतों बाद बरसात हुई.
 

रविवार, 8 जुलाई 2012

दर्द


दर्द 

मेरे आंगन में बरसों से पड़ी
खाली चारपाई पे कल
उनींदी सी पड़ी धूप को 
बाल सुखाते देखा.
थकी निढाल मलिन मुख...
मुझे पास देख खोल दी
क्लांत मन की पिटरिया,
बोली
आज हर कोई भाग रहा है
गगन चुंबी अट्टालिकाओ में रहने को
उसे अपना बनाने को
पहले होते थे
दूर तक फैले बड़े बड़े खेत खलिहान
दूर दूर फैले दो चार मकान
और तब मैं
रोज सूरज के साथ घर से निकलती
फैला देती अपना आंचल एक ही बार में
इस पार से उस पार तक
फिर सारा दिन बच्चों संग छुपन छुपाई
पेड़ पौधों पक्षियों संग आंख मिचोली,
थोडा ऊँघ भी लेती 
किसी दादी अम्मा की गोद में. 
शाम फिर अपना आंचल समेट
अपने प्रियतम संग लौट आती, 
कल फिर आने कि उंमग में. 
चाहती आज भी हूँ 
हर मन, घर, आंगन, खिड़की 
को रौशन करना 
इतनी सीढियाँ इतनी ऊँची इमारत 
चढ़ते चढ़ते ही बीत जाता है दिन
हर इंसान की ही तरह परेशान हूँ मैं भी.


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रविवार, 1 जुलाई 2012

हसरतें


हसरतें 
सुनती आई हूँ
सपने देखने में पैसे नहीं खर्च होते
पर सच तो ये है
उन्हें पालने पोसने में
एक उम्र खर्च हो जाती है
मैंने भी देखे कितने ही सपने
कुछ जन्मे, कुछ अजन्मे ही
छोड़ गए मुझे अकेला
अधर में इस धरा पे
कुछ खिसके, रेंगे, लड़खड़ाए
और कुछ...
अपने पैरों पर चल निकले
तभी डाल दी गयीं 
बेडियाँ उन पैरों में
दिन बदले, साल बदले, जमाना बदला
न टूटी, न तोड़ी गयीं, 
न खुलीं, न खोली गयीं बेडियाँ.
आज अपाहिज हो गए हैं
सपने मेरे
पर मैं खुश हूँ
जानती हूँ बैसाखियाँ दे दूँ 
तो कुछ दिन तो और 
साथ निभा जायेंगे ये
मेरी उम्र से लंबी इनकी उम्र जो है.
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